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किरण ३-४] नियतिवाद
[८९ बदल सकता, तब स्वकर्तत्व कहाँ रहा तथ्य यह उत्पन्न न हो एक अध्यापक कक्षा में अनेक छात्रों को है कि भविष्यका प्रत्येक क्षणका अमुक रूपमें होना पढ़ाता है। अध्यापकके शब्द सब छात्रोंके कानोंमें अनिश्चित है। मात्र इतना निश्चित है कि कुछ न टकराते हैं, पर विकास एक छात्रका प्रथम श्रेणीका, कुछ होगा अवश्य । द्रव्य शब्द स्वयं भव्य होने दूसरेका द्वितीय श्रेणीका तथा तीसरेका तृतीय श्रेणीयोग्य, योग्यता और शक्तिका वाचक है। द्रव्य उस का होता है। अतः अध्यापक यदि निमित्त होनेके पिघले हए मोमके समान है जिसे किसी-न-किसी कारण यह अहंकार करे कि मैने इस लड़केमें ज्ञान सांचेमें ढलना है। यह निश्चित नहीं है कि वह किस उत्पन्न कर दिया तो वह एक अंशमें व्यर्थ ही है; सांचे में ढलेगा। जो आत्मा अबद्ध और पुरुषार्थ. क्योंकि यदि अध्यापकके शब्दों में ज्ञानके उत्पन्न करने हीन हैं उनके सम्बन्धमें कदाचित् भविष्यवाणी की की क्षमता थी तो सबमें एकसा ज्ञान क्यों नहीं भी जा सकती हो कि-अगले क्षणमें इनका यह हुआ? और शब्द तो दिवारोंमें भी टकराये होंगे. परिणमन होगा। पर सामग्रीकी पूर्णता और प्रकृति उनमें ज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न हुआ? अतः गुरुको पर विजय करनेको दृढ प्रतिज्ञ आत्माके सम्बन्धमें 'कर्तृत्व' का दुरहंकार उत्पन्न न होनेके लिये उस कोई भविष्य कहना असंभव है। कारण कि भविष्य अकर्तृत्व भावनाका उपयोग है। इस अक त्वकी स्वयं अनिश्चित है। वह जैसा चाहे वैसा एक सीमा सीमा पराकर्तृत्व है, स्वाकर्तृत्व नहीं। पर नियतितक बनाया जा सकता है। प्रति समय विकसित वाद तो स्वकर्तृत्व कोही समाप्त कर देता है; क्योंकि होनेके लिए सैकड़ों योग्यताएँ हैं। जिनकी सामग्री इसमें सब कुछ नियत है। जब जिस रूप में मिल जाती है या मिलाई जाती है वह योग्यता कार्यरूपमें परिणत हो जाती है।
पुण्य और पाप क्या? यद्यपि श्रात्माकी संसारी अवस्था में नितान्त परतंत्र
जब प्रत्येक जीवका प्रति समयका कार्यक्रम स्थिति है और वह एक प्रकारसे यन्त्रारूढकी तरह
. निश्चित है अर्थात् परकर्तृत्व तो है ही नहीं, साथ परिणमन करता जाता है फिर भी उस द्रव्यकी
HA MS ही स्वकर्तृत्व भी नहीं है; तब क्या पुण्य और क्या निज सामर्थ्य यह है कि-वह रुके और सोचे. तथा पाप ? क्या सदाचार और क्या दुराचार | जब अपने मार्गको स्वयं मोड़कर उसे नई दिशा दे।
प्रत्येक घटना पूर्व निश्चित योजनाके अनुसार घट अतीत कायके बल पर श्राप नियतिको जितना रही है तब किसीको क्या दोष दिया जाय ? किसी चाहें कुदाइये, पर भविष्यके सम्बन्धमें उसकी सीमा स्त्रीका शील भ्रष्ट हुआ। इसमें जो स्त्री, पुरुष और है। कोई भयंकर अनिष्ट यदि हो जाता है तो संतोष शय्या आदि द्रव्य संबद्ध हैं, जब सबकी पर्यायें केलिये 'जो होना था सोहा' इस प्रकार नियतिकी नियत हैं तब पुरुषको क्यों पकड़ा जाय १ स्त्रीका संजीवनी उचित कार्य करती भी है। जो कार्य जब परिणमन वसा होना था, पुरुषका वैसा और विस्तर हो चुका, उसे नियति कहने में कोई शाब्दिक और का भी वैसा । जब सबके नियत परिणमनोंका नियत
आर्थिक विरोध नहीं है। किन्तु भविष्यके लिये मेलरूप दुराचार भी नियत ही था. तब किसीको नियत (Done) कहना अर्थ-विरुद्ध तो है ही, शब्द- दुराचारी या गुण्डा क्यों कहा जाय ? यदि प्रत्येक विरुद्ध भी है। भविष्य (To be) तो नियंस्यत या द्रव्यका भविष्यके प्रत्येक क्षणका अनन्त-कालीन नियंस्यमान (Will be done) होगा, न कि नियत
कार्यक्रम नियत है, भले ही वह हमें मालूम न हो, (Done)| अतीतको नियत (Done) कहिये, वर्त- तब इस नितान्त परतन्त्र स्थितिमें व्यक्तिका स्वपरुमानको नियम्यमान (Being) और भविष्यको षार्थ कहाँ रहा ? नियस्यमान (Will be done)।
गौडसे हत्यारा क्यों ? अध्यात्मकी अकर्तृत्व भावनाका भावनीय अर्थ नाथूराम गोडसेने महात्माजीको गोली मारी तो यह है कि निमित्त भूत व्यक्तिको अनुचित अहंकार क्यों नाथूरामको हत्यारा कहा जाय ? नाथूरामका