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अनेकान्त
वर्ष १४
श
-मेरे ख्यालसे स्थानोंका चुनाव इस प्रकार किया जिसमें आपने कोई-न-कोई दुर्धर व्रतका पाराधन न किया जाये-पूर्व में ईसरी, दक्षिणमें कुंथलगिरि, पश्चिममें सोनगढ़, हो। आप अनेकों बार एक-एक, डेढ़-डेढ़ मास केवल छांछ उत्तरमें हस्तिनापुर और मध्यमें इन्दौर, सिद्धवरकूट या या नींबूके जलपर रहे हैं, गर्मीके दिनोंमें भी एक-एक मास बड़वानी।
तक विना पानीके निर्वाह किया है। नमकका त्याग तो आपके ___ मेरी रायसे इन संन्यास-भवनोंका नाम 'मा. शान्ति- २७-२८ वर्षसे था ही, पर बीच-बीच में अनेकोंबार आपने सागर-संन्यास-भवन' रखा जावे। यह कार्य उनके द्वारा सर्वरसोंका भी त्यागकर केवल रूखे-सूखे भोजन पर वर्षों उपस्थित किये गये प्रादर्शके अनुरूप और भावी पीढ़ीको तक शरीरका निर्वाह किया है। एक बार आपके रूक्ष आहार इस मार्गपर चलानेके लिए प्रेरक होनेके कारण सर्वोत्तम करनेसे नेत्रोंकी ज्योति चली गई, तो आपने अन्न-जलका ही स्मारक सिद्ध होगा।
परित्याग कर दिया। किन्तु भाग्यवश तपोबलसे सातवें दिन अथवा जहां पर जैनी अधिक संख्यामें आबाद हैं, ऐसे आपको पुनः नेत्र-ज्योति प्राप्त होगई। पांच शहरोंमें नगरके बाहिर नसिया आदि स्थानोंमें उक्त आपकी शिक्षा बचपनमें बहुत ही कम हुई थी, किन्तु संन्यास-भवन निर्माण किये जावें। वर्तमानकी व्यवस्थाको मुनिजीवनमें आप निरन्तर शास्त्राभ्यास करते रहे, जिसके देखते हुए सोलापुर, बम्बई, अहमदाबाद जयपुर, दिल्ली, फलस्वरूप आपका शास्त्रज्ञान बहुत अच्छा होगया था। इन्दौर, गया और कलकत्ता मेंसे कोई भी पांच नगरोंका प्रारम्भमें आपको हिन्दी बोलनेका बहुत ही कम अभ्यास था। चुनाव किया जा सकता है।
धीरे-धीरे आपने अपनी योग्यता बढ़ाई और अब काफी देर संन्यास या समाधिमरणके साधनका उत्कृष्ट काल तक हिन्दी में उत्तम व्याख्यान देने लगे थे। आप एकान्तमें १२ वर्षका बतलाया गया है। अतः जो संसारसे उदासीन शान्ति के साथ रहना पसन्द करते थे और घण्टों मौनपूर्वक लेकर संन्यास-दीक्षाग्रहण कर प्रात्म-साधनमें लगना चाहेंगे, समाधिस्थ रहा करते थे। अन्तिम समयमें आपके भाव वे तो उनमें रहेंगे ही। साथ ही जो भी व्रती पुरुष प्रोषधो- तीर्थराज सम्मेदाचलकी यात्रा करके पूज्य पुल्लक गणेशपवास व्रतके धारक हैं, भी अष्टमी चतुर्दशीके दिनोंमें वहां प्रसादजी वर्णीके समीप रहकर समयसार आदि अध्यात्मजाकर समाधिमरणकी अपनी भावनाको दृढ़ संस्कारोंसे ग्रन्थोंके श्रवण-मननके हुए और आपने तदनुसार तीर्थराजकी सुसंस्कृत कर और भी बलवती बना सकेंगे।
बन्दना करके ईसरीमें चतुर्मास किया । अध्यात्म-प्रन्थोंका उक्त संन्यास-भवनोंकी सभालका काम उदासीन-आश्रमों श्रवण-मनन और धर्मसाधन करते हुए आपके दिन और व्रती संस्थाओंके माधीन किया जा सकता है बहुत अच्छी तरह व्यतीत होरहे थे कि अचानक उदर
मा० नमिसागरका संन्यास-ग्रहण व्याधिने विकट रूप धारण कर लिया । जब आपने रोगकी श्रा० शान्तिसागरके समाधिपूर्वक देहत्याग करनेके १३ असाध्यताका अनुभव किया, तो संन्यास धारण कर लिया मासके पश्चात् उन्हींके शिष्य परम तपस्वी भा० नमिसागर- और अन्त में अपने पूज्य गुरुदेव श्रा० शान्तिसागर महाराजके जीने ११-10-१६को संन्यासग्रहण किया। यद्यपि तपस्यासे समान ही अत्यन्त शान्ति और परम समाधिके साथ शरीरका प्रापका शरीर अत्यन्त कृश पहिलेसे ही था, परन्तु पिछले परित्याग किया। दिनों में आपको उदर रोगकी शिकायत होगई थी। जब यद्यपि प्रापको मौन-पूर्वक स्वाध्याय करना अधिक पसन्द
आपने देखा कि मेरा रोग उपचार किये जाने पर भी उत्तरोत्तर था और इसलिए व्याख्यान बहुत ही कम देते थे। पर जब बढ़ता ही जारहा है, तब आपने सर्व प्रकारकी औषधि और कभी भी आप व्याख्यान देते, तो उसमें श्रोताओंको भनेक अबका त्याग करके समाधि-मरणकी तैयारी की और अन्तमें अश्रु त-पूर्व मौलिक बातें सुननेको मिलती थीं । कभी-कभी २२-१०-५६ को दिनके १२ बजे पूर्ण सावधानीके साथ तो आप किसी खास बातको कहते हुए इतने प्रात्म-विभोर देहका उत्सर्ग कर स्वर्ग-धाम पधारे।
हो जाते थे, कि प्रांखोंसे अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती मा. नमिसागरजीकी तपस्यासे सर्व जोग परिचित है। थी। जैन समाजकी दिन पर दिन गिरती हुई दशाको देखकर आपके महान त्याग और उग्र तपस्यामोंकी सर्वत्र चर्चा है। आपके हृदयमें जो पीड़ा होती थी, उसकी झांकी कभी-कभी प्रापके मुनिजीवन में ऐसा कोई चातुर्मास यान नहीं पाता, आपके उपदेशोंमें स्पष्ट दिख जाती थी। पाप जैन धर्मकी