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किरण ३-४]
आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक पवित्रता और शुद्धता रखनेके लिए अपने प्रवचनोंमें बहुत से बाल्माको इन विभावरूपी भागोंसे बचाने, मलीन होनेसे अधिक जोर देते रहे हैं । आपने जहां कहीं भी चतुमांस रोकने और ज्ञानकी सच्ची देनका ही नाम सरस्वती है। किया, भापके प्रवचनोंसे प्रभावित होकर वहांकी समाजने सरस्वती क्या है जो अपना है, उसे अपने पास रखे, दूसरे मुक्र हस्तसे दान दिया और उसके फलस्वरूप स्थान-स्थान उसमें हों उन सबको निकाल दे। यहां तक कि राग-द्वेषपर अनेकों पाठशालाएँ और औषधालय श्रादि खोले गये। रूपी हवाको लगने ही न दे । जब राग-ष मौजूद ही नहीं
श्रा नमिसागरजीका एक चतुर्मास सन १६ में होंगे तो विभावरूपी भाग उत्पन्न ही नहीं हो सकते । जब दिल्ली हुआ था। उसी समय पा० सूर्यसागरजी महाराजने बीज ही नहीं रहेगा, तो वृक्ष कहांसे होजायगा ? इस भी पहाड़ी धीरज दिल्लीमें चतुर्मास किया था। उस समय
लिए आप इन विभावरूपी राग-देषोंको अपने हृदयसे धर्मपुरा नया मन्दिरमें दोनों प्राचार्योके साथ-साथ अनेक वार निकालकर शान
निकालकर शानकी सच्ची देन सरस्वतीको स्थिर करो और उपदेश हुए हैं। जिनमेंसे कितने ही उपदेश म.भा. केंद्रीय दूसराका महासमिति दिल्लीके द्वारा संकेत लिपिमें निबद्ध कराये गये
( 101 के प्रवचनसे) थे। इन उपदेशोंकी हिन्दीमें टाइप की हुई प्रतियां मेरे पास
सच्चा सुरक्षित हैं। उन उपदेश-भाषयोंमेंसे कुछ खास-खास अंश
___ookआप लोग जान लो तरंग मेषको जाने बिना यहां उद्धृत किये जाते हैं, जिनसे पाठकोंको पा० नमिसागर
बाहिरी मेषमें गुरु नहीं हो सकता। अन्तरंग मेषको जानने जीकी महत्ता, विद्वत्ता और सूक्ष्म विचारकताका बहुत कुछ
वाला ही गुरु हो सकता है। परिचय मिलेगा।
जब तक आपके आत्माके) अन्दर माया है, मिथ्या
माहार-विहार है, प्रज्ञान है, मिथ्यात्व है, तब तक संसार है। आत्माका शत्रु कौन है ?
जो अपनी अन्तरंग भावनामें उचत रहे, वही साधु "विभावको हमने बुलाया, तो भाया । मापसे-पाप है। अन्तरंगका मतलब अपने धर्ममें । अपनी भात्माको पाया नहीं। मेरा शत्रु कौन है अज्ञान मेरा शत्रु, मेरे संसार-बन्धनसे छड़ाकर साधन करनेवाला, अवलोकन करनेअज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला विभाव मेरा शत्रु है।" बाला जो अपने आप मार्ग निकाल वे वही साधु है। ___ "आप लोग यह जान लो कि पानी हमेशा पानी रहता जप-तप करनेसे, उपवास करनेसे, कपड़ा छोड़नेसे क्या है, वह कभी गंदला नहीं रहता। पानी हमेशा सफेद रहेगा। हुमा, जब तक विषय भोग नहीं कोडे । साधु को न पुण्यपानीको कोई खराब नहीं कर सकता, जब तक कि वह पानी कर्मसे मतलव, न पाप कर्मसे । जिसको पुण्य कर्मको रहेगा । पानी हवा लगनेसे हिलोर लेने लगता है। हवा
जरूरत नहीं, पापकर्मकी जरूरत नहीं, वही साधु है। लगनेसे उछलने लगता है, बस यह कीचड़से मलीन
जो संसारमें रहे, पर अन्तरंगमेंसे जितने शल्य निकास होगया। वह मलीन नहीं, मलीन वह जो उसमें झाग दी। संसारमें रहता है, लेकिन उसमें लिप्त नहीं है. बीतउठते हैं, बुलबुले उठते हैं। इस तरह पानी आपसे-आप राग जिसके भीतर जाग रहा है, जिसके अन्दर वीतराग मैला होगया। अगर पानी अपनी असली शक्ल में रहता, सम्यग्ज्ञान प्रकाशित हो चुका है, वह शक्य-रहित गुरु है।" उसमें झाग नहीं उठते, तो पानीको मैला करनेवाला कौन
(१२-१२-११ के प्रवचनसे) है? हवा । हवासे पानीमें भाग उत्पन्न होगये। माग कहां
सबा साधु कौन है? जो आप अपने प्रारम हितकी से पायेउसके अपने विभावसे माग उपन्न होगये। हवा साधना करे और दूसरोंको साधना करनेको कहे। लगी तो विभाव हुआ, हवा नहीं लगती, तो विभाव होता
(३-१२-५७ के प्रवचनसे) नहीं, पानी गंदला होता नहीं। इसी तरह प्रादमी अपने श्रात्म-हित श्रेष्ठ, या पर-हित ? स्वभावमें स्थिर रहता, तो पानीकी तरह निर्विकार आत्मसात् "आपके सामने दो वस्तुएं है-(एक) अपना कल्याण बना रहता। उसने अपने स्वभावसे अपनेमें रागद्वेष उत्पा करना, (दो) दूसरोंका कल्याण करना । अपना कल्याण कर लिये और रागद्वेष रूपी हवासे विभावरूपी भाग करना ठीक है, या दूसरोंका कल्याण किया जाय xex उठ खड़े हुये । सरस्वती यहां ही सरस्वती है। अनादिकाल- तुम्हारा तो परहितकी रक्षा करते-करते अनन्त काल बीत