________________
[..
किरण ३-४]
आचार्यद्वयका संन्यास और उनका स्मारक विश्वास रखो । सभी जीवोंको सिद्ध सरीखा (भविष्यमें सिद्ध सफलता न मिलने पर उनके प्राणिमात्रके उद्धारको पुनीत बननेकी सामर्थ्य रखने वाला) समझो । किसोका तिरस्कार भावना से भरे हुये कोमल हृदयको जो ठेस पहुंची, जो नहीं करना चाहिये।
अन्तर्वेदना हुई, उसका भी पता उक वाक्यके द्वारा सहज ता. ८-8-१५ को प्राचार्य महाराजके अन्तिम प्रवचन
में ही लग जाता है । वस्तुतः प्राचार्य महाराज केवल शान्तिको रिकार्ड किया गया है। उसमें प्राचार्यश्रीने कितनी ही
सागर ही नहीं थे अपितु वे कल्याके भाकर और विश्वबातों पर बहुत उत्तम प्रकाश डाला है। जिसमें से यहां मंत्री भण्डार भी थे। पर उनके प्रवचनका एक अंश उडत किया जाता है
प्राचार्यश्री स्वर्गावरोहणके पश्चात् सारे भारत__"तर त्याचे मध्ये जिनधर्म हा कोणी जीव धारण वर्षमें शोक-सभाएं को गई और उन्हें श्रद्धाजलियां करील त्या जीवाचा कल्याण अवश्य होईल Ixxx समर्पित की गई। अनेक स्थानों पर उनके स्मारक बनाने सप्तव्यसनधारी अंजन चोर स्वर्गाला गेलं । हे तर की भी बड़ी-बड़ी बातें उठी । पर उनमेंसे कौन सोड, नीच जातीचा कुत्ता जीवंधरकुमाराच्या उप- बात मूर्तरूप धारण करेगी, यह भविष्य ही बतलायगा। देशानं सद्गतीला गेला, इतका महिमा जिनधर्माचा मेरी रायमें बड़े स्मारकके रूपमें जो भी किया जाये, सो
आहे। परन्तु कोण धारण करीत नाहीं। जैन होऊन तो ठीक है ही। पर कम-से-कम उनके सम्बास-धारण जिनधर्मावर विश्वास नाहीं।"
करनेके परम भादर्शको स्थायी रखने और संन्यासकी परम्पराअर्थात् जैन धर्म को जो कोई भी जीव धारण करता को जारी रखने के लिए यह अत्यन्त प्रावस्यक प्रतीत होता है, उस जीवका अवश्य कल्याण होता है |xx सप्तव्यसन- है कि भारत के मध्य एक और उसके चारों ओर चार इस धारी अंजनचोर पहले स्वर्ग गया और पचे मोक्ष गया। प्रकार पांच संन्यास-भवनोंका अवश्य निर्माण कराया इसे भी छोडो, अत्यन्त नीच जातिका कुत्ता भी जीवन्धर- जावे । जहां जाकर समाधिमरण इल्पक श्रावका साथ कुमारके द्वारा उपदेशको पाकर सद्गतिको प्राप्त हुआ। अपने जीवनके अन्तिम कणोंको पूर्ण निराकुलता पूर्वक इतनी महिमा जैनधर्मकी है। (इतनी महिमा जैन धर्म धर्माराधनमें व्यतीत कर प्राम-कल्याण कर सकें। इसके की होने पर भी) कोई इसे धारण नहीं करता। जैन लिए कुछ उपयोगी सुझाब इस प्रकार हैंहोकर भी उन्हें अपने जिनधर्म पर विश्वास १-जन-कोलाहल से दूर किसी एकान्त, शान्त, तीर्थ नहीं हैं।"
क्षेत्र या इसी प्रकार के उत्तम स्थानका चुनाव किया जाय, उक्र प्रवचन के अन्तिम शब्द कितने मार्मिक और जहां पर मंन्यासको धारण करनेका इच्छुक श्रावक या साधु उदबोधक हैं और प्राचार्य महाराज उनके द्वारा अपना रह कर समाधिपूर्वक देह उत्सर्ग कर सके। श्राशय प्रकट कर रहे है कि जिनधर्मके माहात्म्यसे, उसके २-संन्यास-भवनकी दीवालों पर चारों ओर घोरातिआश्रयसे बड़े-बड़े पापी तिर गये, उनका उद्धार हो गया, घोर उपसर्ग और परीषहोंको सहन करके माध्मार्य सिद तो क्या जैन कलमें उत्पन हये व्यक्ति का उद्धार नहीं करने वाले साधुओंके सजीव चित्र रहें जिन्हें देखकर होगा। अवश्य होगा। पर प्राचार्य महाराज दीर्घ निःश्वास समाधिमरण करनेवाला अपने परिणामोंको स्थिर रख सके। छोड़ते हुए कहते हैं कि जैनियोंको स्वयं अपने ही धर्म पर
३-उन चित्रोंके नीचे समाधिमरण पाठके वंद, वैराग्यविश्वास नहीं है, यह कितने दुःख की बात है । इस एक वर्धक श्लोक आदि लिखे जावें। तीर्थकरोंके पांचों कल्याणकोंही प्रवचन-सूत्र में कितनी भावनाएं अन्तर्निहित है यह के भी रश्य अंकित किये जायें। भवनकी छतपर या किसी उसके एक-एक अक्षरसे प्रकट हो रहा है। साथ ही प्राचार्य एक ओर की दीवालपर समवसरणमें धर्मोपदेश देते हुए महाराजकी उस शुद्ध भावनाका भी स्पष्ट पाभास तीर्थकर भगवानका जीता जागता चित्रण किया जाय। मिलता है, जोकि वे जीवन भर अपने उपदेशोंके द्वारा --उक्र संन्यास-भवनके समीप ही कुछ दूरी पर परिजीवों को सम्मार्गपर लानेके लिए भाते रहे और यथेष्ट चर्या करनेवालोंके रहने प्रादिके लिए कमरे मादि बनाये 8 जैन गजटके श्रद्धाञ्जलि-विशेषाकसे साभार उद्धत। जावें और इनकी व्यवस्थाका भार उक क्षेत्रके समीप रहने
वाली जैम पंचायतके प्राधीन किया जाये।