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अनेकान्त
[वर्ष १४ कमोसे विमुक्र होकर सिद्धि प्राप्त कर लेता है। यही संन्यास जुटाता है और फिर अकेले ही चला जाता है। नाते समय धारण करनेका सर्वोत्कृष्ट फल है।
कोई उसका साथी होता है और न जाते समय । इसलिए प्राचार्य शान्तिसागरका संन्यास-ग्रहण
उसे औरोंसे परामर्शकी क्या आवश्यकता है?"
पुनः संघपतिने जब निवेदन किया-महाराज, आपके ___ संन्यास-धारण करना श्रावक और साधु दोनोंका परम
दर्शनले भक्कोंका उद्धार होगा न १ भनोंके कल्यायका श्राप कतैव्य माना गया है । जैन शास्त्रों में संन्यास धारण करने
सदैव ध्यान रखते हैं। अब भी उनको श्रात्म-कल्याणका वाले अगणित व्यकियोंके दृष्टान्त भरे पड़े हैं। अनेकों
अवसर देना चाहिये न ? स्थानों पर समाधिमरण करने वालोंके स्मारक और शिला
श्राचार्यश्रीने उत्तर दिया-"जिनका जैमा भाग्य होगा, लेख आज भी प्रचुर परिणाममें उपलब्ध हैं। फिर भी इधर
आत्म-कल्याणका अवसर उनका उस रूपमें अवश्य प्राप्त कितने ही वर्षोंसे लोग इस अन्तिम परम कर्तव्य को भूलसे
होगा ही । दूसरोंके कार्योका निर्धारण मैं स्वयं थोड़े ही कर रहे थे। उसे स्वीकार करके गत वर्ष चारित्र-चक्रवर्ती प्रा०
सकता हैं। मुझे तो अपने ही ऊपर अधिकार है, अपने ही शान्तिसागरजीने जैन जगत् ही नहीं, सारे संसारके सामने
कोंके लिए मैं उत्तरदायी हूँ। मेरी अन्तरात्मा कहती है कि एक महान् भादर्श उपस्थित किया है। इधर उन्नीसी
सल्लेखना धारण करनका उचित समय अब भा गया है। बीसवीं शताब्दीके भीतर जितने भी साधु हुए है, उनमें
अन्तरात्माके सामने मैं और किसी बातको कैसे महत्व दे. मा. शान्तिसागरजीने अपनी दीर्घकालीन तपस्या, निर्मल
सकता हूँ?" निर्दोष चारित्र और शान्त स्वभावके कारण अपना एक विशेष
xxx "मेरी दृष्टि क्षीण हो गई है, इस कारण प्राणिस्थान जन-मानसके भीतर बनाया है। उनका शरीर पूर्ण संयम रखने में मुझे कठिनाई होगी। अतः अब पल्लेखना रूपसे निरोग था, किन्तु वृद्धावस्थाके साथ-साथ आंखोंकी
धारण करना मेरा कर्तव्य है।" ज्योति मन्द पढ़ती गई और उन्हें अपने धर्मका निर्वाह जब "दिगम्बर जैन यतियोंके लिए धर्म ही मातृ-समान है। अशक्यसा प्रतीत होने लगा, तब उन्होंने शास्त्रोक मार्गका
वही उनका जीवन-सर्वस्व है । यदि शारीरिक शिथिलताके अनुसरण कर संन्यासको धारण किया और जीवन अन्तिम
कारण धर्मके पालनमें बाधा होनेकी आशंका हो, तो वह प्रमक्षण तक पूर्ण सावधान रह कर प्राणोंका उत्सर्ग किया। बता पर्वक प्रायोपवेश करके श्रात्म-चिन्तनमें लीन हो जाते
आचार्य शान्तिसागरने जीवन भर जैन धर्मका स्वयं हैं और शरीरको उसी प्रकार त्याग देते हैं जैसे जीर्ण-शीर्ण पालन करते हुए सारे भारतमें विहार कर उपदेश दिया और कंथाको लौकिक जन । जैन साधुओंको दृष्टिमें शरीरकी लोगोंमें उसका प्रचार किया है। जीवनके अन्तमें उन्होंने उपयोगिता धर्म पालनके साधनके रूपमें ही है । जिस क्षण जिस संन्यासको धारण किया था उसका आभास उनके शरीरकी यह क्षमता नष्ट हो जाती है, उसी क्षण उसकी अन्तिम दिनोंके प्रवचनोंमें स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। उपयोगिता भी नहीं रह जाती और दि. जैन साधु बिना उसकी कुछ मांकी देखिए
किसी मोहके उसे विसर्जित कर देते हैं। इसी कारण उनके संघपति गेंदनबालजी जव्हेरी बम्बईने जब आचार्य- समाधिमरणको वीरमरण कहते हैं।" महाराज-द्वारा सल्लेखना धारण करनेके समाचार सुने और मा० शान्तिसागरके सल्लेखना ग्रहण करनेके अनन्तर उन्होंने महाराजकी सेवामें उपस्थित होकर प्रार्थना की- जो थोड़ेसे उनके प्रवचन हुए उनके कुछ अंश इस प्रकार है'कमसे कम कुछ प्रमुख लोगोंको सूचना देकर पहले यहां "मनुष्यको सतत प्रयत्न करते रहना चाहिये। उदास बुला लिया जाय, उनसे परामर्श कर लिया जाय और फिर और निराश होना ठीक नहीं। प्रयास करते रहनेसे सफलता
आप सल्लेखनाके सम्बन्धमें निश्चय करें, तो अच्छा होगा।' अवश्य मिलती है। लकड़ीको लकड़ीके साथ घिसते रहने तब प्राचार्य महोदयने उत्तर दिया
पर अग्नि अवश्य प्रकट होती है, उसी प्रकार निरन्तर प्रयत्न "यह तो मैं अपने प्रात्मकल्याणके लिए कर रहा हूँ। करते रहने पर प्रात्म-जाभ अवश्य होता है।" इसमें दूसरोंसे क्या पूछना जोव अकेले पाता है, अपने "अपनेको घटिया समझना ठीक नहीं। केवलीके समान कियेका फल भोगता है, अपने प्रारमोद्धारके साधन माप ही अनन्त शक्ति प्रत्येकमें विकसित हो सकती है, इस सत्य पर