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अनेकान्त
[वर्ष १४ नत-नरासुर-निर्जर-नायकं करण-मुक्त-सुसात-विधायकम्। सुनय-नीत-चिदात्मसुसिद्धये प्रवियजे जिन शिवसिद्धये ॥६॥ अकल-नीरस नीरव-निर्भवं, हरि-हरेन्दु-नुतं शिवद शिवम् । निखिल-काल-कलाकृति-जग्धये प्रवियजे जिनपं शिवसिद्धये ॥१०॥ इत्थं शुभेन्दुवदना शुभचन्द्रयोगैाता दिशंतु जिनपाः शुभसिद्धिवृद्धाः। सिद्धिं विशुद्धिमरमृद्धिममन्दबुद्धिं स्वान्ते शुभाःशुभकराश्च चिदुद्यता वः ॥ ११॥ :
(अजमेरके दि. जैन पंचायती मन्दिर शास्त्र-भंडारके एक गुटकेसे उधृत)
क्यों तरमत है ? (बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) क्यों तरसत है क्यों चिन्तित तू, क्यों श्राशाहत क्यों याचक तू॥
मधु-अमृत की पूरण निधि तू
शान्ति सुधा का सागर । सुषमा का भण्डार भरा तू
मालोकों का भाकर ॥१॥
जग की सारी लीला शोभा .
___ मंगल-गाथा तुझ से। कालचक्र के युग-युग की है
नाम-महत्ता तुझ से ॥२॥
देव-असुर-नर-पशु अरु पंछी
मीन-मकर-कृमि-भौर। . अग्नि-वायु-जल-भूमि वनस्पति
रूप विविध है तेरे ॥३॥
हास-उदय उत्कर्ष-पतन के
इतिवृत्तों का कर्ता। भव्य-विभूति अतुल-वैभवमय
तू भविष्य का धारा
परमेश्वर का वास बना तू
ऋद्धि-सिद्धि का साधक । मूल्यांकन सबका तुमसे तू
झूठ-सत्य का मापक ॥
ज्ञान कला विज्ञान व दर्शन -
दान अतुल हैं तेरे। धर्म-कर्म सब पथ जीवन के
काम कल्प हैं तेरे ॥६॥
सत्य महोन मार्ग अह ज्योती
तू पौरुष का धाता। पाप-पुण्य दुख सुख-तथ्यों का
.. तु है भाग्य-विधाता Rom