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अनेकान्त
[वर्ष १४ दान, अभयदान और ज्ञानदानके रूपमें चार इस प्रकार भी कह सकते हैं कि अतिथि-संविभाग प्रकारके दान का विधान किया गया।
त्याग-प्रधान होनेसे धर्मरूप है, जबकि दान प्रवृत्तिजैन शास्त्रों में दिये गये अतिथिसंविभाग और प्रधान होनेसे पुण्यरूप है। गृहस्थ के लिए दोनों की 'दानके क्रम-विकसित लक्षणोंपर दृष्टिपात करनेसे आवश्यकता है, इसी कारण पाचार्योंने उक्त दोनों का
सहजमें ही यह ज्ञात हो जाता है कि अतिथि- विधान किया है। अतिथिसंविभागका फल प्रात्मिक संविभागका क्षेत्र जैन या वीतरागधर्मस्थ मनुष्यों गुणोंका विकास करना है, जब कि भाहार दानका तक ही सीमित रहा है, जब कि दानका क्षेत्र प्राणि- फल धन-ऐश्वर्यकी प्राप्ति, औषधिदानका फल शरीरकी मात्र तक विस्तृत रहा है। लेकिन दोनों के इस सामित निरोगता, ज्ञानदानका फल ज्ञान-प्रतिष्ठा-सन्मानकी पौर असीमित क्षेत्रके कारण कोई यह न समझ लेवे प्राप्ति और अभयदानका फल निर्भयता बतलाया गया कि दान देना अधिक लाभप्रद होगा। फलकी दृष्टिसे है। इस प्रकार ऐहिक सुखदायक पुण्यकार्य होने पर भी तो दोनों में महान अन्तर है, अपात्रोंमें दिया गया दानकी अपेक्षा अतिथिसंविभागवतका महत्व कई गुणा भारी भी दान अल्प फलका देनेवाला होता है, जब अधिक हो जाता है, क्योंकि यह श्रावकका एक कि पात्रमें दिया गया अल्प भी दान महान् फलका महत्वपूर्ण भावश्यक धर्म है। हाताता। जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके इस श्रावकधर्मका प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों में हम कथनसे स्पष्ट है
श्रावकाचारका क्रम विकसित रूपसे देखते हैं। प्राचार्य क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति और समस्तफलति च्छायाविभवं बहफलमिष्टं शरीरमृताम् ॥ भने श्रावकके बारह व्रतोंका ही विधान किया है।
(रलकरण्डक, श्लो० ११६) उनके ग्रन्थों में देवपूजादि छह आवश्यकोंका कहीं भी अर्थात जैसे उत्तम भूमिमें बोया गया बटका पृथक् निर्देश दृष्टिगोचर नहीं होता है। यह बात छोटासा भी बीज आगे जाकर विशाल छाया और अवश्य है कि उनमेंसे कुछ एक पावश्यकोंका यथामिष्ट फल दाता होता है, इसी प्रकार योग्य पात्रमें सम्भव बारह व्रतोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। किन्तु दिया गया थोड़ा सा भी दान समय आने पर महान् रत्नकरण्डश्रावकाचारके पश्चात रचे गये श्रावकाचारोंइष्ट फलको देता है।
में देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, सप और किन्तु उक्त उल्लेखसे कोई यह न समझ लेवे कि दान नामक छह कर्तव्योंका प्रतिदिन करना जरूरी जब ऐसा है, तब केवल अतिथि या योग्य पात्रको ही माना गया है और इसी कारण उन्हें आवश्यक दान देना चाहिए, अन्यको नहीं। अतिथि-संविभाग- संज्ञा दी गई है। में धार्मिक भावकी प्रधानता है, जब कि सर्वसाधारण- प्रारम्भमें श्रावकोंके छह आवश्यकोंका विधान न को दान देने में कारुण्य भावकी प्रधानता है। इसी होने और पीछे उनका विधान किया जानेको तहमें भावको तत्त्वार्थसूत्रकारने 'भूत-प्रत्यनुकम्पादान' पदसे क्या रहस्य है, इस पर गंभीरतासे विचार करने पर ध्वनित किया है। दोनों के फलोंमें एक दूसरा महत्त्व- ऐसा प्रतीत होता है कि काल-क्रमसे जब मनुष्यों में पर्ण अन्तर और भी है और यह अन्तर वही है जो कि श्रावकके बारह व्रतोंको धारण करनेकी शिथिलता या धर्म और पुण्यके फल में बतलाया गया है। धर्मका असमर्थता दृष्टिगोचर होने लगी और कुछ इनेफल पारमार्थिक है, अर्थात् सांसारिक दुःखोंसे छुड़ा- गिने विशेष व्यक्ति ही उन बारह व्रतोंके धारक होने कर आत्माके स्वभाविक सुखकी उपलब्धि कराना है, लगे, तब तात्कालिक आचार्योंने मनुष्यों के आचारजब कि पुण्यका फल ऐहिक है, अर्थात् सांसारिक विचारको स्थिर बनाये रखनेके लिए देवपूजादि छह सुखोंका प्राप्त कराना है। इसे हम दूसरे शब्दोंमें आवश्यक कर्तव्योंके प्रतिदिन करनेका विधान किया