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पृष्ट १८ का शेष ]
माहिन्यगी कुछ लिया गया है। ममें 'क्ववियनोऽपि' रामायणमें पाठ चौपाइयाँ लिखने के बाद एक बता दिया है, वाक्य खासतौरसे विचारणीय है जिसे पटकमानमजबकि तुलसीदासजीने प्रायः पाठ चौपाइयोंके बाद एक में दिकसाहि.यसे भिम जनसाहित्यसे भी कुछ लिया गया दोहा या सोरठा दिया है। दूसरे अपनश भाषाके अनेक है। इसके अतिरिक्त 'मानस' को अन्तिम प्रशस्तिमें तो शब्दोंके प्राचुर्यको देख कर यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने उसका स्पष्ट रूपसं उल्लेख कर दिया है। जैसा कि तुजसीदासजोने अपभ्रंश भाषाका अध्ययन हीन किया हो। उसके निम्न पचसे प्रकट हैकिन्तु 'घूमउ, 'भनति-भणह' 'पिपीलिकउ' 'कवनु-कवणु' यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्री शंभुना दुर्गम, (देशी) 'केवट-केवट्ट' (सं० कैवत), 'गयउ' अपनपउ' श्रिमदु रामपदाब्ज भक्ति मनिशं प्राहत्येतुरामयणम् ।
आदि शब्द इस बातके सूचक हैं कि मानपमें अपभ्रंश मत्वा तद् रघुनाथ नामनिरतस्वान्तस्तमःशान्तये, भाषाके शब्दोंकी बहुलता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। माषाबद्ध मिदंचकारतुलसी-दासस्तथा मानसम्॥" तुलसीदासजी केवल जैन रामायणसे ही परिचित नहीं थे इस पद्य में बतलाया गया है कि समर्थ कवि श्रीशंभुने किन्त .नके परिचय में अन्य जैन ग्रन्थ भी भाये थे। /aaनि म चाण कमलोको बनेके लिये जिसका एक उदाहरण १०वीं शताब्दीके कवि धनपालकी
पहले जो दुगम रामायण (पउमचरित) रचा था उसे भविष्यदत्त पंचमी कथाकी कुछ कियाँ नीचे दी जा रघुनाथके नाममें निरत समझकर अपने अन्तःकरणके अज्ञान रही हैं जिनका रामायणकी पंक्तियोंके साथ तुलना करने पर अंधकारको शान्त करनेके लिये तुलसीदासने इस मानसको स्पष्ट पाभास मिल जाता है:
बनाया-हिन्दी भाषामें रचना की। इस पत्र में जहाँ 'पूर्व 'सुणिमित्नई जायई तासुताम,
प्रभुणा सुकविना श्रीशंभुना दुर्गम रामायणं कृतं' वाक्य गय पयहिणंति उड्डेवि साम । खासतौरसे ध्यान देने योग्य है। वहीं इदं (मानसम्) वामगि सुत्ति रुहरुहरुवाउ,
भाषाब' चकार पद भो खासतौर से ध्यान देने योग्य है। पिय मेलावउ कुलु कुलइ काउ इससे सुनिश्चित है कि तुलसीदासजीने स्वयंभूदेवके रामायण वामउ किलि किंचउ लावएण,
को केवल दखा ही नहीं था किन्तु उससे उन्होंने बहुत कुछ ढाहिणउ अंगु दरिसिव मएण। साहाप्य भी प्राप्त किया था, यही कारण है कि उन्होंने उनका दाहिणु लोयणु फंदइ सबाहु,
प्रन्थमें तोन स्थानों पर तीन प्रकार से उल्लेख किया और रणं भणई एण मग्गेण जाहु ॥"
उनके प्रति समादर व्यक कर नहि कृत मुपकारं साधयो "दाहिन काग सुखेत सुहावा,
विसमरंति' की नीतिको चरितार्थ किया है।। नकुल दरस सब काहु न पावा। इसोसे प्रसिद्ध लेखक श्री राहुल सांस्कृस्यायनजाने अपनी सानुकूल वह विविध वयारी,
हिन्दी गद्य काव्य धाराकी प्रस्तावनामें इसे स्वीकार किया सचट सवाल आव वरनारी॥ और लिखा है कि-"क्वचिदन्यतोऽपि" से तुलसीवावाका लावा फिरिफिरि दरस दिखावा,
मतलब है, ब्रह्मणों के साहित्यसे बाहर "वहीं अन्यत्र से सुरभी सन्मुख शिशुहिं पित्रावा। भी" और अन्यत्र इस जैन ग्रन्थमें रामकथा बड़े सुन्दर रूपमें मृगमाला दाहिन दिशि आई,
मौजूद है। जिम सोरों या शूकर क्षेत्रमें गोस्वामीजीने रामकी मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई। कथा सुनी, उसी सोरोंमें जैनघरों में स्वयंभू रामायण पढ़ा स्वयंभूदेवसे पहले 'चउमुह' ने अपभ्रंश भाषामें रामायण जाता था, रामभक्त रामानन्दी साधु रामके पीछे जिस प्रकार बनाई थी, परन्तु खेद है कि वह भाज उपलब्ध नहीं है और पड़े थे, उससे यह बिल्कुल सम्भव है कि उन्हें जैनोंके पहा १२वीं शताब्दीके उत्तराद्ध के विद्वान कविघर ईधूने भी उक्त इस रामायणका पता लग गया हो।" भाषामें रामायण लिखी है और महाकवि पुष्पदन्तने भी ऊपर के इस समस्त विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है रामकथा महापुराणके अन्तर्गत लिखी है, इस प्रकार जैन कि जब रामायणकार स्वयं प्राकृतके हरिचरित (रामचरित) समाजमें रामकथाका अनुक्रम बराबर चलता रहा है। का उल्लेख कर रहे हैं और उनकी कृति में अपन शके
तुजसीदासजी ने 'मानस' के शुरूमें जहाँ यह प्रकट किया शब्दोंका बाहुल्य तक विद्यमान है। ऐसी स्थितिमें स्वयंहै कि रामायण में जहाँ अनेक पुराण, निगम और बागम भूदेवके 'पउमचरिड' का उनपर और उनकी कृति पर होने सम्मत तथा अन्य से भी वैदिक साहित्यसे भिन्न जन वाले अमिट प्रभाव को ठौन अस्वीकार कर सकता है?