________________ आगम निबंधमाला हुई आपत्ति को दूर करने के लिये चक्रवर्ती राजा आदि को भी भयभीत कर सकता है, दण्ड दे सकता है और उस आपत्ति का निवारण कर सकता है। ऐसा करने में उसके संयम में अवश्य ही मूल गुण प्रतिसेवना (दोष प्रवत्ति) या कभी उत्तर गुण प्रतिसेवना होती है। इस नियंठे का सम्पूर्ण काल अतर्मुहूर्त का है / अतः लब्धि प्रयोग के कार्य से वह अंतर्मुहूर्त में ही निवत हो जाता है और आलोचना प्रायश्चित्त कर शुद्ध संयम दशा में अर्थात् कषाय कुशील नियंठा में आ जाता है / यदि अंतर्मुहूर्त में निवत्त नहीं होवे या आलोचना आदि के भाव नहीं होवे तो अंतर्मुहूर्त की स्थिति समाप्त होने पर असंयम अवस्था को प्राप्त कर लेता है / इस लब्धि प्रयोग की अवस्था में तीन शुभ लेश्या में से ही कोई एक लेश्या रहती है, अशुभ लेश्या नहीं रहती। फिर भी प्रवत्ति में आवेश और अक्षमा भाव होने से तथा छोटे या बड़े किसी दोष की नियमा होने से इस नियंठे के प्रारंभ से ही संयम पर्यव की इतनी कमी आने लग जाती है कि बकुश नियंठे के जघन्य चरित्र पर्यव से इनके अनंत गुणहीन चरित्र पर्यव हो जाते हैं / यह नियंठा जीवन में उत्कष्ट तीन बार ही आ सकता है। लब्धि प्रयोग में ज्ञान दर्शन आदि का कोई न कोई हेतु निमित होता हैं उन निमितों की अपेक्षा से इसके 5 प्रकार कहे गये हैं। 1. ज्ञान पुलाक- ज्ञान(अध्ययन) के सम्बन्ध में किसी के द्वारा किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न की जाने पर उस विकट परिस्थिति में जो कोई पुलाक लब्धि का प्रयोग करता है तो वह ज्ञान पुलाक निर्ग्रन्थ कहलाता है। 2. दर्शन पुलाक- दर्शन के सम्बन्ध में अर्थात् श्रद्धा प्ररुपणा के संबंध में किसी के द्वारा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न की जाने पर उस विकट परिस्थिति में जो कोई पुलाक लब्धि का प्रयोग करता है, वह दर्शन पुलाक निर्ग्रन्थ कहलाता है / 3. चारित्र पुलाक- संयम पालन की आवश्यक विधियों में किसी के द्वारा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न की जाने पर उस विकट परिस्थिति में जो कोई पुलाक लब्धि का प्रयोग करता है वह चारित्र पुलाक निर्ग्रन्थ कहलाता है / 41