________________ आगम निबंधमाला देने वाले स्वयं प्रायश्चित्त के पात्र है-निशी. उद्दे. 10. ऐसा आगम विपरीत प्रायश्चित्त कोई आचार्य भी देवे तो उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये, स्वीकार नहीं करना चाहिये, इन्कार कर देना चाहिये-प्रमाण के लिये देखें- बृहत्कल्प सूत्र उद्दे. 4 का सूत्र 30 का मूल पाठ एवं विवेचन। निबंध- 33 उत्सर्ग-अपवाद मार्ग का विवेक ज्ञान उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य है- जीवन की शुद्धि, आध्यात्मिक विकास, संयम की सुरक्षा तथा ज्ञानादि सद्गुणों की वृद्धि / जैसे राजपथ पर चलने वाला पथिक यदा कदा विशेष बाधा उपस्थित होने पर राजमार्ग का परित्याग कर पास की पगडंडी पकड़ लेता है और कुछ दूर जाने के बाद किसी प्रकार की बाधा दिखाई न दे तो पुनः राजमार्ग पर लौट आता है। यही बात उत्सर्ग से अपवाद में जाने और अपवाद से उत्सर्ग में आने के संबंध में समझ लेनी चाहिए / दोनों का लक्ष्य प्रगति है, अतः दोनों ही मार्ग हैं, कुमार्ग या उन्मार्ग नहीं है। दोनों के समन्वय से साधक की साधना समृद्ध होती है। प्रश्न- उत्सर्ग और अपवाद कब और कब तक? ..प्रश्न वस्तुतः महत्त्व का है। उत्सर्ग साधना की सामान्य विधि है। अतः उस पर साधक को सतत चलना होता है। उत्सर्ग छोड़ा सकता है किन्तु अकारण नहीं। किसी विशेष परिस्थितिवश ही उत्सर्ग का परित्याग कर अपवाद अपनाया जाता है, पर सदा के लिये नहीं। जो साधक अकारण उत्सर्ग मार्ग का परित्याग कर देता है अथवा सामान्य कारण उपस्थित होने पर उसे छोड़ देता है अथवा परिस्थितिवश ग्रहण किये अपवाद मार्ग को सदा के लिये पकडे रखता है वह सच्चा साधक नहीं है वह जिनाज्ञा का आराधक नहीं अपितु विराधक है / (जैसे चौथ की संवत्सरी) - जो व्यक्ति अकारण औषध सेवन करता है अथवा रोग न होन पर भी रोगी होने का अभिनय करता है, वह धूर्त है, कर्तव्यविमुख है। 145