________________ आगम निबंधमाला जे एग जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं से एगं जाणइ ।-अध्य.३, उद्दे.४ // जो एक को अच्छी तरह जानता है (आत्मा को) वह सर्व लोक स्वरूप को जान लेता है / जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। सव्वओ पमत्तस्स अत्थि भयं, सव्वओ अपमत्तस्स णत्थि भयं / -अध्य.३, उद्दे.४ // प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता / सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा / -अध्य.४, उद्दे.१ // किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिये, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण वियोजन नहीं करना चाहिए / एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्चं लोयं खेयण्णेहिं पवेइए / -अध्य.४,उद्दे..१. // यह (अहिसा) धर्म शुद्ध नित्य और शाश्वत है, खेदज्ञ अरिहंत प्रभू ने लोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया / जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा / एए पए संबुज्झमाणे, लोयं च आणाए अभिसमेच्चा पुढो पवेइयं ।-अध्य.४,उद्दे.२ // जो आश्रव (कर्म बंध) के स्थान हैं वे ही परिस्रव कर्म मोक्ष के कारण बन जाते हैं / जो परिस्रव हैं वे ही आश्रव हो जाते हैं, जो अनास्रव है. वे ही अपरिस्रव हो जाते हैं, जो अपरिस्रव हैं वे ही अनास्रव हो जाते हैं / इन पदों को, भंगों को समझने वाला, विस्तार से प्रतिपादित जीव लोक को जानकर आश्रव न करे अर्थात् सभी संयोगों में जिनाज्ञा अनुसार विवेक पूर्वक वर्तन करे जिससे आश्रव रुक सकता है एवं निर्जरा हो सकती है। कम्मुणा सफलं दर्छ, तओ णिज्जाइ वेयवी ।-अध्य.४, उद्दे.४ // कर्म अपना फल देते हैं, यह देख कर ज्ञानी मनुष्य कर्म संचय से निवत होते हैं / | 225 /