Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 231
________________ आगम निबंधमाला अधुवं जीवियं णच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया / विणियट्टिज्ज भोगेसु, आउं परिमिय मप्पणो ॥अध्य.८, गाथा-३४॥ अर्थ- जीवन अनित्य है, विनश्वर है, ऐसा विचार कर रत्नत्रयी रूप मोक्ष मार्ग को जानकर, विषयों से विरक्त हो जावे, क्यों कि न जाने कब इस देह से संयोग छूट जाय, एक क्षण भी जीवित रहना निश्चय नहीं है। जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्डइ / जाविदिया न हायति, ताव धम्म समायरे ॥अध्य.८, गाथा-३६॥ अर्थ- जब तक बुढापे के कारण शरीर में शिथिलता नहीं आती, शरीर को रोग नहीं आ घेरते, इन्द्रियों की शक्ति का ह्रास नहीं होता, तब तक श्रुत चारित्र रूप धर्म का आचरण कर लेना चाहिए / कोहं माणं च मायं च, लोहं च पाववढढण / वमे चत्तारि दोसाई, इच्छंतो हियमप्पणो ॥अध्य.८, गाथा-३७॥ अर्थ- आत्मा के विभाव परिणाम रूप क्रोध, दूसरों को हीन भान कराने वाला मान; छल-कपट रूप माया, द्रव्यादि आकांक्षा रूप लोभ, ये चारों दोष चारित्र को दूषित करने वाले हैं / अतः आत्मा के हितैषी साधक को इनका अवश्य ही त्याग करना चाहिये / कोहो पीई पणासेइ, माणो विणय णासणो।। माया मित्ताणि णासेइ, लोहो सव्व विणासणो ॥अध्य.८, गाथा-३८॥ अर्थ- क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय गण नष्ट करता है. माया मित्रता का नाश करती है, लोभ सर्व गुणों का विनाशक है / उबसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे / मायं चज्जवं भावेणं, लोहं संतोसओ जिणे ॥अध्य.८, गाथा-३९॥ अर्थ- क्षमा के द्वारा क्रोध को, विनय से मान को, सरलता से माया को, संतोष से लोभ को जीतना चाहिये / कोहो य माणो थ अणिग्गहीया, माया व लोहो व पवड्ढमाणा / चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मूलाई पुणब्भवस्स // ॥अध्य.८, गाथा-४०॥ अर्थ- निग्रह नहीं किए हुए किंतु बढते हुए क्रोध, मान, माया, लोभ | 231 /

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