________________ आगम निबंधमाला चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि / अण्णं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥अध्य.१,उद्दे.१, गाथा-२॥ सयंतिवायए पाणे, अदुवा अण्णेहिं घायए / हणतं वा अणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो ॥अध्य.१,उद्दे.१, गाथा-३॥ अर्थ- बोधि को प्राप्त करो, बंधनों को जानकर उसे तोड़ डालो / प्रश्न उपस्थित होता है कि महावीर ने "बंधन" किसे कहा है ? किस तत्व को जान लेने पर बंधन तोड़ा जा सकता है ? समाधान- जो मनुष्य चेतन या अचेतन पदार्थों में परिग्रह बुद्धि (ममत्व) रखता है और दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है, वह द:ख से मुक्त नहीं हो सकता / जो प्राणी वध करता है, कराता है एवं प्राणि वध का अनुमोदन करता है वह संसार की वद्धि करता है / इसलिये आरंभ(वध) और मूर्छा ममत्व(परिग्रह) का त्याग करना यही संसार बंधनों से छूटने का उपाय है / आरंभ और परिग्रह ये ही संसार में कर्म बंधन को बढ़ाने वाले हैं। . एवं खु णाणिणो सारं, ज ण हिंसइ कंचणं / अहिंसा समय चेव, एयावत वियाणिया ॥अध्य.१,उद्दे.४, गाथा-१॥ अर्थ- ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करे, समता और अहिंसा इन्हें ही उसे जानना समझना पर्याप्त जरुरी है। संबुज्झह किं ण बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा / णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं // ___-अध्य.२, उद्दे.१,गाथा-१॥ अर्थ- संबोधि प्राप्त करो, बोधि को प्राप्त क्यों नहीं होते, जो वर्तमान में सम्बोधि को प्राप्त नहीं होते, उसे अगले जन्म में भी वह सुलभ नहीं होती / बीती हुई रात्रियां लौटकर नहीं आती, यह मनुष्य जीवन वापिस मिलना बहुत कठिन है, दुर्लभ है / जहा णई वेयरणी, दुत्तरा इह सम्मता। .' एवं लोगसि णारिओ, दुत्तरा अमइमया ॥अध्य.३,उद्दे.४, गाथा-१६॥ अर्थ- जैसे वैतरणी नदी (विषम तट और तेज प्रवाह के कारण) 233