Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 234
________________ आगम निबंधमाला दुस्तर मानी जाती है, वैसे ही अबुद्धिमान अज्ञानी पुरुषों के लिए स्त्रियाँ दुस्तर होती है / अर्थात् मानव मात्र के लिये स्त्रियों में मोहित नहीं होना दुष्कर होता है। खेयण्णए से कुसले महेसी, अणंतनाणी य अणंतदंसी। . जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिइच पेह // . ___-अध्य.६,गाथा-३॥ से सव्वदंसी अभिभूयणाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा / .. अणुत्तरे सव्वजगसि विज्ज, गंथा अतीते अभए अणाऊ // -अध्य.६, गाथा-५॥ अर्थ- ज्ञात पुत्र आत्मज्ञ खेदज्ञ कुशल महर्षि अनन्त ज्ञानी अनंतदर्शी थे, उन यशस्वी और आलोक पणे में स्थित ज्ञातपुत्र के धर्म को जानो और उनकी धति को देखो। वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे, विशुद्ध भोजी, धतिमान और स्थितात्मा थे, वे सर्व जगत में अनुत्तर विद्वान, अपरिग्रही, अभय और अनायु(जन्म मरण के चक्र से रहित) थे / दाणाण सेठें अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवज्ज वयंति। तवेसु वा उत्तमं बंभचेर, लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते ॥अध्य.६, गाथा-२३॥ अर्थ- जिस तरह दानों में अभयदान श्रेष्ठ है, सत्य में निर्वद्य वचन श्रेष्ठ है, तपमें उत्तम ब्रह्मचय श्रेष्ठ है, वैसे ही लोक में श्रमण भगवान ज्ञांतपुत्र श्रेष्ठ हैं। कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्तदोसा / एयाणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वइ पाव ण कारवेइ // -अध्य.६, गाथा-२६॥ अर्थ- क्रोध,मान, माया और लोभ ये चारों आध्यात्म दोष रूप है / इनका त्याग करके अहँत महर्षि पापकृत्य स्वयं भी नहीं करते, अन्य से भी नहीं करवाते / सोच्चा य धम्म अरहंत भासियं, समाहियं अट्ठपदोवसुद्धं / तं सद्दहता य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्सं ॥अध्य.६, गाथा-२९॥ अर्थ- समाधिकारक एवं अष्टकर्मों से आत्मा को शुद्ध करने वाला अहँतभाषित धर्म को सुनकर एवं उसकी श्रद्धा करके मानव आयुष्यकर्म | 234

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