Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ आगम निबंधमाला निबंध-६४ पुरुषार्थ से भाग्य में परिवर्तन संभव वर्तमान में हम जो पुरुषार्थ करते हैं, उसका फल अवश्य ही प्राप्त होता है / भूतकाल की दृष्टि से उसका महत्त्व अधिक भी है और कम भी। वर्तमान में किया गया पुरुषार्थ यदि भूतकाल में किये गये पुरूषार्थ से दुर्बल है तो वह भूतकाल के किये गये पुरूषार्थ पर नहीं छा सकता / यदि वर्तमान में किया गया पुरूषार्थ भूतकाल के पुरूषार्थ से प्रबल है तो वह भूतकाल के पुरूषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है, बदल सकता है। यदि कर्म की केवल बंध और उदय ये दो ही अवस्थाएं होती तो बद्ध कर्म में परिवर्तन को अवकाश नहीं होता, किन्तु अन्य अवस्थाएँ भी है / यथा- (1) उद्वर्तन (2) अपवर्तन (3) उदीरणा (4) संक्रमण। उद्वर्तन अपवर्तन से कर्मों की स्थिति और रस बढ़-घट सकता है, उदीरणा से कर्मों को तप आदि से जल्दी क्षय कर दिया जाता है। संक्रमण से शुभकर्म, अशुभ में और अशुभकर्म, शुभ में परिवर्तित हो जाते हैं / ये चार कर्म अवस्थाएँ मानव या प्राणी के लिए पुरूषार्थ से भाग्य को परिवर्तन करने में अनुपम अवसर(चास) देने वाली है। अत: व्यक्ति को कर्माधीन होकर हताश नहीं होना चाहिए / अनेकांत सिद्धांत में ऐसी एक से एक कडिएँ है, जिनसे नई चेतना मिलती है। इसी कारण पाँच समवायों में पुरूषार्थ को व्यवहार प्रधान कहा गया है / फिर भी कहीं भाग्य की जीत भी सुरक्षित रहती है / कर्मों की कुछ अवस्थाएँ ऐसी भी होती है जिसमें पुरूषार्थ से भी परिवर्तन संभव नहीं होता है, वह कर्मों की निकाचित अवस्था कहलाती है / इस प्रकार दो तरह की कर्म अवस्थाएँ होने से क्वचित् सफलता की आशा की गुंजाईश होने से मानव को पुरुषार्थरत रहना चाहिए / भाग्य के भरोसे हतास होकर नहीं बैठना चाहिए / कहा भी है- उद्यमेन हि सिद्ययति कार्याणि न मनोरथैः / न. हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविसति मुखे मगाः // परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। | 236

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240