Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 230
________________ आगम निबंधमाला है, प्रत्युकार की आशा न रखने वाला दाता और किसी का कार्य न करने वाले मुनि ये दोनों ही सद्गति को एवं मोक्ष गति को प्राप्त करते है। तव तेणे वय तेणे, रूव तेणे य जे नरे / आयार भाव तेणे य, कुव्वइ देव किव्विसं ॥अ.५, उद्दे.२, गा.४६॥ अर्थ- जो साधु तप के, व्रतों के, रूप के, आचार के एवं भाव के चोर होते हैं, अर्थात् इनका जिनाज्ञानुसार ईमानदारी से पालन नहीं करते हैं, वे किल्विषि देवों में उत्पन्न होते हैं। सव्वे जीवा वि इच्छति, जीविउं ण मरिज्जिउं / तम्हा पाणिवहं घोरं, णिग्गंथा वज्जयंति णं ॥अ.६, गा.११॥ अर्थ- सब जीव जीने की इच्छा रखते हैं, कोई जीव मरना नहीं चाहता, इसलिए प्राणियों का वध(हिंसा) करना घोर दु:ख दाता होने से भयंकर है, अतः निर्ग्रन्थ साधु इसका त्याग करते हैं / इसी प्रकार माया एवं मषावाद का भी भिक्षु त्याग करे / अचोर्यव्रत पालन का निर्देश इस प्रकार हैंचित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहु / / दंत सोहणमित्तं वि, उग्गहं सि अजाइया ॥अध्य.६, गाथा-१४॥ अर्थ- सचित एवं अचित अल्प या बहुमूल्य यहाँ तक कि दंत शोधन का तण भी स्वामी की आज्ञा लिए बिना मुनि ग्रहण नहीं करते हैं / मूल मेय महमस्स, महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहुण संसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥अध्य.६, गाथा-१७॥ अर्थ- अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, वध बंधादि महादोषों की खान है / इसलिए 18 पापों को पैदा करने वाले मैथुनरूप स्त्री संसर्ग का निर्ग्रन्थ परित्याग करते हैं। ण सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताईणा / मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इय वुत्तं महेसिणा ॥अध्य.६, गाथा-२१॥ अर्थ- ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने निर्दोष वस्त्र आदि का ग्रहण करना परिग्रह नहीं बताया हैं, क्यों कि वस्त्रादि शरीर के पुष्टावलम्बन है, किन्तु उन में मूर्छा भाव को परिग्रह कहा है। [230

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