Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 228
________________ आगम निबंधमाला अहं व भोगरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो / मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥अध्य.२, गाथा-८॥ जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ। . वाया विद्धव्व हडो, अट्ठि अप्पा भविस्ससि ॥अध्य.२, गाथा-९॥ अर्थ- हे अपयश के अभिलाषी तुझे धिक्कार है / असंयम जीवन के सुख के लिए जो वमन किये को खाना चाहता है, इस प्रकर के जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है / हे रथनेमि ! मैं भोजराज की पोती हूँ और उग्रसेन की बेटी हूँ, तुम अन्धक वष्णि के पौत्र समुद्रविजय के बेटे हो, दोनों ही निर्मल कुलों में उत्पन्न हुए हैं, हमें गंधन कुलों में उत्पन्न सर्पो के समान नहीं होना चाहिए / अत: विषयादि को त्याग कर अनंत सुखों के कारण भूत निरतिचार संयम का पालन करो। यदि तुम जिस जिस स्त्री को देखोगे, उन सब पर यदि विकार भाव करोगे तो आंधी से उड़ाये गये हड़ वनस्पति या शेवाल की तरह अस्थिर हो जाओगे। कह चरे कह चिठे, कह मासे कह सए / ' कह भुंजतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ॥अध्य.४, गाथा-७॥ अर्थ- हे भगवान ! यदि ऐसा है तो (अर्थात् चलने आदि में हिंसा होती है और पापकर्म का बंध होता है तो) मुनि कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे ? कैसे भाषण करे ? जिससे पाप कर्म का बंध न हो / जयं चरे, जयं चिढ़े, जय मासे जयं सये। जय भुजतो भासतो, पाव कम न बंधई ॥अध्य.४, गाथा-८॥ अर्थ- मुनि, यतना से(इर्या समिति युक्त होकर) चले, यतना से खड़े होवे, यतना से बैठे, यतना से सोये, यतना से भोजन करे, यतना से भाषण करे तो वह पाप कर्म को नहीं बाँधता है / (यहाँ यतना का मतलबविवेक से, चंचलता रहित, जीवों को देखते हुए और उनकी रक्षा करते हुए, सावधानी पूर्वक तथा व्यवस्थित ढंग से चलना आदि उक्त क्रियाएँ करने वाला हिंसा से बचता है। जिससे पापकर्म का बंध नहीं होता है। सामान्य बध तो निरतर जीव के होता ही रहता है / ) . . | 228

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