Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 227
________________ आगम निबंधमाला निबंध-६२ - सुभाषित संग्रह : दशवैकालिक सूत्र धम्मो मंगल मुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो / देवावि तं णमसति, जस्स धम्मे सया मणो ॥अध्य.१, गाथा-१॥ अर्थ- धर्म उत्कृष्ट मंगलरूप है और वह अहिंसा, संयम और तप रूप है, जिनका मन धर्म में अनुरक्त रहता है उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं / जे य कंते पिए भोए, लद्धेवि पिट्ठि कुव्वइ / साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ ॥अध्य.२, गाथा-३॥ अर्थ- जो महापुरुष पूर्व पुण्य के उदय से प्राप्त हुए मनोहर भोगों और इष्ट शब्दादि विषयों को विविध वैराग्य भावना भाकर त्याग देते हैं, उनसे विमुख हो जाते हैं, और निरोग एवं समर्थ होते हुए भी समस्त भोगों को त्याग देते हैं, वे ही त्यागी कहलाते हैं / आयावयाहि चय सोगमल्लं, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं / छिदाहि दोस विणएज्ज राग, एवं सुही होहिसि संपराए // -अध्य.२, गाथा-५ // अर्थ- आतापना रुप तपस्या करो, सुकुमारता को छोडो, इन्द्रिय विषयों में राग न करो / राग के त्याग से दु:खों का नाश हो ही जाता है। द्वेष का लेशं भी न रहने दो और राग को छोड दो, तो सहज ही संसार में सुखी अथवा परिषह-उपसर्गों के संसार में विजयी होंगे। पक्खंदे जलियं जोई, धूम के दुरासयं / णेच्छति वतय भोत्तु, कुले जाया अगधणे ॥अध्य.२, गाथा-६॥ अर्थ- गंधन और अगंधन दो प्रकार के सर्प होते हैं, जो मंत्रादि के वशीभूत होकर वमित विष को वापस चूस लेते हैं, ये गंधन और जो जलती हुई अग्नि शिखा में प्रवेश कर जाते हैं, परन्तु वमित विष को नहीं चूसते वे अंगधन सर्प कहलाते हैं / थिरत्थु ते अजसोकामी, जो तं जीविय कारणा / वंत इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥अध्य.२, गाथा-७॥ 227

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