________________ आगम निबंधमाला अर्थ- वीर पुरूष कषाय(क्रोध और मान) को नष्ट करे, लोभ को महान् नरक रूप देखे, वायु की भाँति अप्रतिबद्ध विहार करने वाला वीर साधक हिंसादि पापों से विरत होकर स्त्रोतों (कामनाओं) को छिन्न कर डाले / गथं परिण्णाय इहज्ज वीरे, सोयं परिण्णाय चरेज्ज दंते / / उम्मज्ज लद्धं इह माणवेहिं, णो पाणिणं पाणे समारंभेज्जासि . -अध्यः३,उद्दे.२ // अर्थ- इन्द्रिय जयी वीर परिग्रह और कामनाओं को तत्काल छोड़कर विचरण करे, इस मनुष्य जन्म में ही संसार सिंधु से निस्तार हो सकता है, अत: मुनि प्राणियों के प्राणों का समारंभ न करे / आगतिं गतिं परिण्णाय, दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे / से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डज्झइ, ण हम्मइ कंचणं सव्व लोए॥- अध्य.३,उद्दे०३ // अर्थ- आगति और गति अर्थात् जन्म मरण को जानकर जो(रागद्वेष) दोनों (अंतों) से दूर रहता है, वह लोक के किसी भी कोने में छेदा, भेदा, जलाया और मारा नहीं जाता है अर्थात् कही भी दु:खी नहीं होता है / अणेग चित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहई पुरित्तए ।-चंचल चित्त वाले प्राणी का पुरुषार्थ चालणी को पानी से भरने के समान निष्फल होता है। पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तामच्छसि? -अध्य.३, उ.३॥ पुरुष! तूं ही तेरा मित्र है, फिर बाहर मित्र क्यों खोजता है? पुरिसा अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि ।-अध्य. 3, उद्दे.३ // पुरूष ! आत्मा का ही निग्रह कर, ऐसा करने से ही तूं दुःख से मुक्त हो जाएगा / पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए उवट्ठिए सेयं समणुपस्सइ ।-अध्य.३,उद्दे.३ // - हे पुरुष तूं सत्य संग्रम का ही अनुशीलन कर / सत्य का साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय को प्राप्त करता है। | 224 - -