Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 222
________________ आगम निबंधमाला अर्थ- सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं, दुःख से घबराते हैं, उन्हें वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है, वे जीवित रहना चाहते हैं / सव्वेसिं जीवियं पियं / -अध्य२, उद्दे.३ // सब प्राणियों को जीवन प्रिय है / परिग्गहाओ अप्पाणं अवसकेज्जा / -अध्य.२,उद्दे.५ // परिग्रह से अपने आपको दूर रखें / परिग्रह में लुप्त न हो। कामादुरतिक्कमा / –अध्य.२,उद्दे.५ // काम भोग दुर्लंघ्य है अर्थात् काम वासना से मुक्त रह जाना अति कठिन है / जीवियं दुप्पडिवूहणं / -अध्य.२,उद्दे.५ // जीवन को बढ़ाया नहीं जा सकता। कडेण मूढे पुणो तं करे लोहं / -अध्य.२,उद्दे.५ // अपने ही कृत कर्मों से मूढ़ होकर जीव पुनः काम सामग्री पाने को ललचाता है / अमरायइ महासड्ढी / -अध्य.२,उद्दे.५ // वह जीव अमर की भाँति आचरण करता है अर्थात् संसारी अज्ञानी जीव जीवित रहने की महान श्रद्धा रखते हुए कर्त्तव्य करते रहते हैं / मरने का विश्वास नहीं करते। अपरिणाए कंदति / –अध्य.२,उद्दे.५ // त्याग नहीं करने वाला क्रंदन करता है। तम्हा पावं कम्म, णेव कुज्जा ण कारवे ।-अध्य.२,उद्दे०६ // इसलिए स्वयं पापकर्म का संग्रह न करे न दूसरों से करवाए / जे ममाइय मई जहाइ से चयइ ममाइयं / - जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है / अरई आउट्टे से मेहावी खणसि मुक्के - वीर पुरुष जो अरति को मन से निकाल देते हैं वे क्षण भर में मुक्त हो जाते हैं / अर्थात् सदा हर परिस्थिति में प्रसन्न वदन रहने वाले कभी भी म्लान नहीं बनते हैं वे आत्माएं शीघ्र मुक्ति प्राप्त कर लेती है / मुणी मोणं समादाय, धुणे कम्म सरीरगं / पंतं लूहं च सेवंति, वीरा सम्मत्त दक्षीणो एस ओहंतरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए ति बेमि॥ -अध्य.२,उद्दे.५ // मुनि ज्ञान को प्राप्त कर कर्म शरीर ररा -

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