Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 220
________________ आगम निबंधमाला एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस / दसहा उ जिणित्ताण, सव्व सत्तू जिणामह // [अध्य.२३,गाथा-३६] अर्थ- एक मन आत्मा को काबू में करने पर चार कषाय, पाँच इन्द्रिया यों कुल 10 काबू में हो जाते हैं और दस पर विजय होने पर सभी आत्म शत्रुओं पर विजय हो जाती है / कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मणा // [अध्य.२५,गाथा-३१] अर्थ- कर्तव्यों से ही मानव ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र होता है / जाति का महत्व केवल व्यवहार मात्र का होता है / आत्मोन्नति में वह बाधक नहीं हो सकता। जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, सतेए तहिया नव // [अध्य.२८,गाथा-१४] तहियाण तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं / भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं // [अध्य.२८, गाथा-१५] अर्थ- जीवादि तत्त्वों के सद्भाव(वास्तविक अस्तित्व) के निरूपण में जो अन्त:करण से श्रद्धा करता है, उन तत्त्वों का ज्ञान करता है, उसे सम्यक्त्व होता है, एवं उस अन्त:करण की श्रद्धां को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है। पंच समिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो य निसल्लो, जीवो होइ अणासवो // [अध्य.३०,गाथा-३] जहा महातलायस्स, सण्णिरुद्ध जलागमे / उस्सिंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे // [अध्य.३०,गाथा-५] एवं तु संजयस्सावि, पावकम्म निरासवे / भव कोडी संचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ // [अध्य.३०,गाथा-६] अर्थ- पाँच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, अकफायी, जितेन्द्रिय, अगौरव (गर्व रहित) और निःशल्य जीव अनाश्रव होता है / जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब, जल आने के मार्ग का निरोध [220 OMPmware - - - - - -

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