________________ आगम निबंधमाला निबंध- 44 संयम तप का हेतु कैसा हो धर्म का कोई भी आचरण किया जाय उसका हेतु शुद्ध होना आवश्यक है / इसे तीन विभागों से समझना चाहिए 1. धर्म के आचरण 2. अशुद्ध हेतु 3. शुद्ध हेतु / (1) धर्म के आचरण :- 1. नमस्कार मंत्र की माला फेरना, 2. आनुपूर्वी गिनना, 3. प्रत्येक कार्य में नमस्कार मंत्र गिनना, 4. मुनियों के दर्शन करना, 5. मंगलिक सुनना, 6. भजन कीर्तन करना, 7. व्रत प्रत्याख्यानादि धर्म प्रवति करना / 8. तपस्या करना / (2) अशुद्ध हेतु :- इहलौकिक धन, सुख, समद्धि, पुत्र आदि की प्राप्ति, कार्य सिद्धि, इच्छा पूर्ति, पौदगलिक सुख प्राप्ति, आपत्ति-शकट विनाश आदि के हेत, धर्म की प्रवत्ति में अशुद्ध हेतु है / यश, कीर्ति, शोभा की प्राप्ति का उद्देश्य भी अशुद्ध हेतु है। . (3) शुद्ध हेतु :- कर्मो की निर्जरा के लिए, कुछ समय धर्म भाव में एवं धर्माचरण में व्यतीत हो इसलिए, पापकार्य कम हो, पाप के कायों के पूर्व में भी धर्म भाव संस्कारों की जागति हो इसलिए, भगवदाज्ञा की आराधना के लिये, चित्त समाधि एवं आत्मानंद की प्राप्ति के लिए, इत्यादि ये शुद्ध हेतु है / . सार :- धर्म की कोई भी प्रवत्ति में इहलौकिक चाहना किंचित भी नहीं होनी चाहिए, एकांत निर्जरा भाव, आत्म उन्नति और मोक्ष प्राप्ति का हेतु होना चाहिए / ऐहिक चाहना युक्त कोई भी प्रवति है, चाहे वह माला फेरना है या व्रत है या तप है उसे धर्माचरण नहीं समझ कर संसार भाव की लौकिक प्रवति समझनी चाहिए / वह आत्मा की उन्नति में एक कदम भी नहीं बढ़ने देने वाली है / __ भगवदाज्ञा की आराधना और कर्म मोक्ष के शुद्ध लक्ष्य वाला धर्माचरण ही धार्मिक प्रवति है ।ऐसा समझना चाहिए / धार्मिक प्रवतियों के साथ लौकिक रुचि की प्रवतियों को मिश्रित | १७रा