________________ आगम निबंधमाला (2) औदेशिक- स्वयं के निमित्त बना हुआ आहारादि नहीं लेना किन्तु अन्य किसी भी साधर्मिक साधु के लिये बने आहारादि इच्छानुसार लेना। (3) राजपिंड़मूर्धाभिषिक्त राजाओं का आहार ग्रहण करने में इच्छानुसार करना। (4) प्रतिक्रमण- नियमित प्रतिक्रमण इच्छा हो तो करना किन्तु पक्खी चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण अवश्य करना। (5) मासकल्प- किसी भी ग्रामादि में एक मास या उससे अधिक इच्छानुसार रहना या कभी भी वापिस वहाँ आकर ठहरना। (6) चातुर्मास कल्प- इच्छा हो तो चार मास एक जगह ठहरना या नहीं ठहरना किन्तु संवत्सरी के बाद कार्तिक सुदी पुनम तक ए क जगह ही रहना। उसके बाद इच्छा हो तो विहार करना, इच्छा न हो तो न करना। ये छहों विधान मध्यम तीर्थंकरो के शासन में तथा महाविदेह में लागु होते हैं / भगवान महावीर स्वामी के शासन के साधुओं के लिये तो उपर वर्णित 10 ही कल्प व्यवस्थित पालन करने होते हैं / निबंध- 49 पाँच व्यवहारों का ज्ञान एवं विवेक व्यवहारसूत्र, उद्देशक-१० में पाँच व्यवहारों का कथन एवं उनका क्रमिक महत्त्व स्थापित किया गया है, उसका पक्षपात रहित यथायोग्य पालन करने की प्रेरणा की गई है / (1) आगम व्यवहारी :- 9 पूर्व से लेकर 14 पूर्व के ज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवल ज्ञानी ये 'आगम व्यवहारी' कहे जाते हैं। (2) श्रुत व्यवहारी- जघन्य आचारांग एवं निशीथ सूत्र मूल, अर्थ, परमार्थ सहित कंठस्थ धारण करने वाले और उत्कृष्ट 9 पूर्व से कम श्रुत धारण करने वाले 'श्रुत व्यवहारी' कहे जाते हैं। (3) आज्ञा व्यवहारी- किसी आगम व्यवहारी या श्रुत व्यवहारी की आज्ञा प्राप्त होने पर उस आज्ञा के आधार से प्रायश्चित्त देने वाला 'आज्ञा व्यवहारी' कहा जाता है। (4) धारणा व्यवहारी- बहुश्रुतो ने श्रुतानुसारी प्रायश्चित्त की कुछ मर्यादा किसी योग्य भिक्षु को धारण करा दी हो उनको अच्छी तरह धारण करने वाला 'धारणा व्यवहारी' कहा जाता है। (5) जीत व्यवहारीजिन विषयों में कोई स्पष्ट सूत्र का आधार न हो उस विषय में बहुश्रुत भिक्षु सूत्र से अविरुद्ध और संयम पोषक प्रायश्चित्त की मर्यादाएँ किसी 183