________________ आगम निबंधमाला पास आहार या पानी आवश्यकता से अधिक हो तो उसे परठने की स्थिति होने पर भी किसी भूखे या प्यासे व्यक्ति को मांगने पर या बिना मांगे देना नहीं कल्पता है क्यों कि इस प्रकार देने की प्रवृत्ति से या प्रस्तुत सूत्र कथित प्रवृत्ति करने में क्रमशः भिक्षु अनेक गृहस्थ कृत्यों में उलझ कर संयम साधना के मुख्य लक्ष्य से दूर हो सकता है। उत्तरा. अ. 9, गा. 40 में नमिराजर्षि, शकेन्द्र के द्वारा की गई दान की प्रेरणा के उत्तर में कहते हैं- तस्सावि संजमो सेओ,. अदितस्स वि किंचणं // अर्थात् कुछ भी दान न करते हुए गृहस्थ के महान् दान से भी संयम श्रेष्ठ है। __ अनुकम्पा भाव युक्त प्रवृत्ति की सामान्य परिस्थिति के प्रायश्चित्त में एवं विशेष परिस्थिति के प्रायश्चित्त में भी अन्तर होता है अतः यह प्रायश्चित्तदाता गीतार्थ के निर्णय पर ही निर्भर रहता है। . यदि कोई पशु या मनुष्य मृत्यु संकट में पड़े हों और उन्हें कोई बचाने वाला न हो, ऐसी स्थिति में यदि कोई भिक्षु उन्हें बचा ले तो उसे छेद या तप प्रायश्चित्त नहीं आता है। केवल,गुरू के पास उसे आलोचना रूप निवेदन करना आवश्यक होता है। यदि उस अनुकम्पा की प्रवृत्ति में बाँधना, खोलना आदि गृहकार्य, आहार-पानी देना आदि मर्यादा भंग के कार्य या जीवविराधना का कोई कार्य हो जाये तो उन दोषों का लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। किन्तु अनुकम्पा का कोई प्रायश्चित्त नहीं है। फिर भी सूत्र में अनुकम्पा शब्द लगाकर कथन किया है वह मोह भाव का अभाव सूचित कर लघु प्रायश्चित्त कहने की अपेक्षा से है और साथ में यह भी बताया गया है कि करूणा भाव की प्रमुखता से गृहस्थ प्रवृत्ति का भी गुरु से लघु प्रायश्चित्त हो जाता है। तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने संयमसाधना काल में तेजो लेश्या से भस्मभूत होने वाले गौशालक को अपनी शीतलेश्या से बचाया और केवल ज्ञान के बाद इस प्रकार कहा कि- मैने गौशालक की अनुकम्पा के लिये शीतलेश्या छोड़ी, जिससे वेश्यायन बालतपस्वी की तेजोलेश्या पतिहत हो गई। - भग. श. 15 / अतः इस सूत्र में करूणा भाव या अनुकम्पा भाव का प्रायश्चित / 198 D owomeo