Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 201
________________ आगम निबंधमाला मानकर अपेक्षा से पेय एवं अपेक्षा से अशुचिमय भी माना है। भाष्यकार ने यह भी बताया है कि जनसाधारण शौचवादी होते हैं और मूत्र को एकान्त अपवित्र मानते हैं, अतः प्रतिमाधारी भिक्षु चारों और प्रतिलेखन करके कोई भी व्यक्ति न देखें, ऐसे विवेक के साथ मूत्र का पान करे / तदनुसार सामान्य भिक्षुओं को भी प्रस्रवण-मूत्र सम्बन्धी कोई भी प्रवृत्ति करनी हो तो जनसाधारण से अदष्ट एवं अज्ञात रखते हुए करने का विवेक रखना चाहिए। वर्तमान में मूत्रचिकित्सा का महत्व बहुत बढ़ा है, इस विषय के स्वतन्त्र ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं। जिसमें केन्सर, टी.बी. आदि असाध्य रोगों के उपशांत होने के उल्लेख भी मिलते हैं / निबंध- 54 . विवध श्रमण गुण प्रेरणा आगमाश :(1) समयाए समणो होई / -उत्तरा. 25 // समभाव धारण करने से ही समन होता है। (2) अप्पमत्तो परिव्वए / -उत्तरा. 6 // सदा अप्रमत होकर विचरण करना चाहिये अर्थात् महाव्रत समिति गुप्ति में पूर्ण सावधान रहकर उनका शुद्ध पालन आराधन करना चाहिये। ___पमत्ते बहिया पास अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि / -आचा. अ. 5 उ. 2 / उठ्ठिए नो पमाए ।-आचा. अ. 5 उ. 2 / संयम में प्रमाद करने वालों को संयम घर से बाहर समझ / अतः सदा अप्रमत्त भावों में रहकर संयम तप में पराक्रम करते रहना। . (3) जयं चरे जयं चिढे / -दशवै. 4 / यतना पूर्वक चलना उठना बैठना आदि प्रवृत्ति करना / . (4) अदु इखिणिया हु पाविया / -सुय. अ. 2 उ. 2 / परनिंदा तो पांपकारी प्रवत्ति है अर्थात् पंद्रहवाँ पाप है, 18 पाप में / (5) सव्वामगंधं परिण्णाय निरामगंधो परिव्वए / -आचा. श्रु. 1 अ. 2 उ. 5 / संयम एवं गवेषणा के छोटे बड़े सभी दोषों को जानकर 201

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