________________ आगम निबंधमाला कर दिया जाता है, केवल स्वमूत्र पान करना खुला रहता है अर्थात् उन दिनों में जब जब जितना भी मूत्र आवे उसे सूत्रोक्त नियमों का पालन करते हुए पी लिया जाता है। नियम इस प्रकार है :- (1) दिन में पीना, रात्रि में नहीं। (2) कृमि, वीर्य, रज या चिकनाई युक्त हो तो नहीं पीना चाहिए / शुद्ध हो तो पीना चाहिए। प्रतिमाधारी भिक्षु के उक्त रक्त, स्निग्धता आदि विकृतियाँ किसी रोग के कारण या तपस्या एवं धूप की गर्मी के कारण हो सकती है, ऐसा भाष्य में बताया गया है। कभी मूत्र पान से ही शरीर के विकारों की शुद्धि होने के लिए भी ऐसा होता है। यद्यपि इस प्रतिमा वाला सात दिन की चौविहार तपस्या करता है और रात-दिन व्युत्सर्ग तप में रहता है फिर भी वह मूत्र की बाधा होने पर कायोत्सर्ग का त्याग कर मात्रक में प्रसवण त्याग करके उसका प्रतिलेखन करके पी लेता है। फिर पुनः कायोत्सर्ग में स्थित हो जाता है। यह इस प्रतिमा की विधि है / यह प्रतिमा 7 या 8 दिन की होती है / इस प्रतिमा का पालन करने वाला मोक्षमार्ग की आराधना करता है। साथ ही उसके शारीरिक रोग दूर हो जाते हैं और कंचन वर्णी बलवान शरीर हो जाता है। प्रतिमा आराधना के बाद पुनः उपाश्रय में आ जाता है। भाष्य में उसके पारणे में आहार-पानी की 49 दिन की क्रमिक विधि बताई गई है। . लोकव्यवहार में मूत्र को एकांत अशुचिमय एवं अपवित्र माना जाता है किन्तु वैद्यक ग्रन्थों में इसे 'सर्वोषधि' शिवांबु आदि नामों से कहा गया है और जैनागमों में(आचारांग में) भिक्षु को 'मोयसमायारे' कह कर उसके प्रतिपक्ष में गृहस्थो को "शुचि समाचारी" वाला कहा गया है। अभि. रा. कोश में 'निशाकल्प' शब्द में साधु के लिए रात्रि में पानी के स्थान पर इसे आचमन करने में उपयोगी होना बताया है। __ स्वमूत्र का विधि पूर्वक पान करने पर एवं इसका शरीर की त्वचा पर अभ्यंगन करने पर अनेक असाध्य रोग दूर हो जाते है। चर्मरोग के लिए या किसी प्रकार की चोट खरोच आदि के लिए यह एक सफल औषध है / अतः आगमों में मूत्र को एकान्त अपवित्र या अंशुचिमय नहीं | 200 - -