Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 210
________________ आगम निबंधमाला यह जानकर संपूर्ण जैन समाज को सरलता पूर्वक एक पंचांग को मान्य करके उसमें लिखी तिथियों के दिन ही सभी पर्व मानने चाहिए / एवं प्रेस गलती आदि भूलों के दोष के निवारणार्थ अन्य पंचांगों से मिलान अवश्य कर लेना चाहिये / / लौकिक पंचांग में भादवा सुद पंचमी या चतुर्थी जिस दिन भी ऋषि पंचमी लिखे वही ऋषि मुनियों का प्राचीन पर्व समझना चाहिए / सम्पूर्ण जैन समाज को अपना आग्रह न रखते हुए जिस तारीख को पंचांग में ऋषि पंचमी लिखे उस दिन संवत्सरी करनी चाहिए / आगम सम्मत निश्चित्त पर्वृषण (संवत्सरी) दिन यही है / अधिक मास का प्रश्न एवं चौथ का प्रश्न ये दोनों पश्चात्वर्ती है अर्थात् बाद में खडे हुए हैं। भादवा सुदी पंचमी अर्थात् ऋषि पंचमी की मौलिक प्रामाणिकता अनेक ग्रन्थों में हैं। अत: अपने अपने आग्रहों का त्याग कर ऋषि पंचमी को (जो चौथ के आग्रह में कभी छूट गई है) पुनः स्वीकार करके अनेकता को समाप्त करना चाहिए और एकता स्थापित करना चाहिए / पंचांगों में अधिक मास को नगण्य करके ही ऋषि पंचमी लिखी जाती है / पूर्वकाल में अधिक मास को गौण करके ही पर्यों का निर्णय करते थे अतः कोई मतभेद नहीं था। इसी कारण प्राचीन ग्रंथों में अधिक मास संबंधी कोई चर्चा नहीं मिलती है / यह कुतर्क बहुत बाद में मूर्खता से चली है और दुराग्रह में पडी है / निवेदन :- समस्त जैन समाज से निवेदन है कि इन उक्त वाक्यों पर ध्यान दे और पंचाग में सूचित ऋषि पंचमी के दिन ही संवत्सरी करें (100-200 वर्ष से चली परम्परा के उदय तिथि, अस्त तिथि, घडियों आदि के चक्कर में न फर्से / क्यों कि प्राचीन टीकाओं-व्याख्याओं में उदयतिथि, अस्त तिथि की कोई भी चर्चा देखने को नहीं मिलती है।) अर्थात पंचांग के निर्णय में अपनी टांग न अड़ावें / क्यों कि विद्वान पूर्वाचार्यों का सामूहिक निर्णय है कि ये लौकिक पंचांग और उनकी पद्धति आगम सम्मत है तब कोई भी आचार्य आदि इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार क्यों ले बैठते हैं ? यह एक विचारणीय प्रश्न है / क्यों कि ऐसा करने में पूर्वाचार्यों के सामूहिक निर्णय का अपमान.या उपेक्षा करना होता है / उक्त दो गाथाओं के का सिद्धसेन आचार्य [210

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