Book Title: Agam Nimbandhmala Part 01
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 203
________________ आगम निबंधमाला (8) ऋजु (अंजु)- साफ दिल सरल स्वभाव रखो, कपट प्रपंच छोड़ो। (9) क्षमाश्रमण- शांत बनो, क्षमा करो, गम खाओ, सहन करो / (10) अणगार- घर रहित बनो / मेरे घर, मेरे गाँव ऐसा मत करो। (11) साधु- श्रेष्ठ कर्तव्य करो / किसी का बुरा मत करो / अकरणीय :(1) किसी भी गांव घर या गहस्थ में ममत्व न करें अर्थात् उन को मेरे-मेर न कहें / गुरुआमनाय के रोग से ग्रसित न बनें / (2) विभूषा वत्ति न करे अर्थात् अच्छा दिखने हेतु शरीर उपकरण को नहीं सजावें एवं संग्रह वत्ति भी न करें / (3) किसी भी साधु से घणा न करें / स्वयं शिथिलाचारी न बने / (4) किसी की निंदा तिरस्कार, इन्सल्ट न करें / (5) कभी भी शोक संताप न करें / करणीय :(1) वाड़ सहित ब्रह्मचर्य का शुद्ध पालन करें / (2) आहार-पानी, मकान, पाट, वस्त्र-पात्र आदि की शुद्ध गवेषणा करें। (3) गमनागमन आदि प्रवति विवेकपूर्ण रखें / उपर से ने फेंके / (4) भाव और भाषा को सदा पवित्र रखें अर्थात् मदुभाषी, पवित्र हृदयी, सरल शांत स्वभावी बने / सदा प्रसन्न रहें / (5) आगम स्वाध्याय वाचना आदि की वद्धि करें / एकत्व भावना एवं तपस्या में लीन बने रहें / आगमों को अर्थ सहित कण्ठस्थ करे / 'निबंध- 55 जैन धर्म का प्राण एकता के अभाव की खटक तो सही है। फिर भी वीतराग धर्म निष्प्राण नहीं है // जैन धर्म मोक्ष प्राप्ति का सच्चा और शुद्ध मार्ग है / ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप यह मोक्ष मार्ग है अर्थात् ये चार मोक्ष के उपाय है। इन चारों को जैन धर्म का प्राण समझना चाहिए / | 203

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