________________ आगम निबंधमाला नहीं है किन्तु उसके साथ की गई गृहस्थ की प्रवृत्ति या संयममर्यादा भंग की प्रवृत्ति का ही प्रायश्चित्त है और करूणा भाव साथ में होने से उस प्रवृत्ति का लघु प्रायश्चित्त है ऐसा समझना चाहिए। अनुकम्पा पवित्र आत्म परिणाम है- अनुकम्पा का अर्थ है- किसी प्राणी को दुःखी देखकर देखने वाले का हृदय करूणा से भर जाना और भावना जागृत होना कि 'इसका यह दुःख दूर हो जाय,' इसको ही अनुकम्पा कहते हैं। यह अनुकम्पा आत्मा का परिणाम है, आत्मा का गुण है और एकांत निर्वद्य है। अतः अनुकम्पा के सावद्य-निर्वद्य ऐसे विकल्प करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तथापि अनुकम्पा के परिणामों के पश्चात् किसी के दुःख को दूर करने के लिए जो साधन रूप प्रवृत्ति की जाती है वह प्रवृत्ति सावद्य और निर्वद्य दोनों तरह की हो सकती है। यथा- भूख-प्यास से व्याकुल पुरुष को श्रावक द्वारा अचित्त भोजन व अचित्त जल दे देना अथवा सचित्त भोजन और सचित्त जल दे देना। किन्तु इससे आत्म परिणाम रूप जो अनुकम्पा भाव है, उन भावों को या आत्मगुणों को सावध निर्वद्य के विकल्प से नहीं कहा जा सकता। वे तो शुभ एवं पवित्र आत्मपरिणाम ही है। . आत्मा के इन्हीं पवित्र परिणामों के कारण गृहस्थ प्रवृत्ति का भी प्रस्तुत सूत्र में लघु प्रायश्चित्त कहा गया है। अनुकम्पा के भावों के निमित्त से अन्य कोई भी प्रवृत्ति की जाय उसे भी यथायोग्य सावध या निर्वद्य समझ लेनी चाहिए। सार- (1) अनुकम्पा के आत्म परिणाम तो सदा सर्वदा श्रेष्ठ एवं पवित्र ही होते हैं / (2) अनुकम्पा से किसी के दुःख को दूर करने में जो प्रवृत्ति की जाती है वह निर्वद्य भी होती है और सावद्य भी होती है। प्रवृत्ति करने में साधु एवं श्रावक की अपनी-अपनी अलग-अलग मर्यादाएँ होती है तदनुसार ही विवेक रखना योग्य है। निबंध-५३ जैनागमों में स्वमूत्र उपयोग(शिवांबु चिकित्सा) ... व्यवहारसूत्र उद्देशक-९ में कही गई मोक प्रतिज्ञा(मूत्र पीने की प्रतिमा) को धारण करने के बाद चारों प्रकार के आहार का त्याग 199 /