________________ आगम निबंधमाला योग्य भिक्षु को धारण करा दे उन्हें अच्छी तरह धारण करने वाला 'जीत व्यवहारी' कहा जाता है। जं जीयमसोहिकर, पासत्थ पमत्त संजयाइण्णं / जइ वि महाजणाइण्णं, न तेण जीएण ववहारो // 720 // जं जीयं सोहिकरं, संवेगपरायणेन दंतेण / एगेण वि आइन्नं, तेण उ जीएण ववहारो ॥७२१॥-व्यव. भाष्य वैराग्यवान् एक भी दमितेन्द्रिय बहुश्रुत द्वारा जो सेवित हो वह जीत . व्यवहार संयमशुद्धि करने वाला हो सकता है। किन्तु जो पार्श्वस्थ प्रमत्त एवं अपवाद प्राप्त भिक्षु से आचीर्ण हो वह जीतव्यवहार अनेकों के द्वारा सेवित होने पर भी शुद्धि नहीं कर सकता है। अतः उस जीत व्यवहार से व्यवहार नहीं करना चाहिए। सो जहकालादीणं अपड़िकंतस्स निव्विगईयं तु / मुहणंतगफिड़िय, पाणगअसंवरेण, एवमादीसु ॥७०६॥व्य. भा.॥ . जो पच्चक्खाणकाल या स्वाध्यायकाल आदि का प्रतिक्रमण नहीं करता है, मुख पर मुखवस्त्रिका के बिना रहता है या बोलता है और पानी को नहीं ढंकता है उसे नीवी का प्रायश्चित्त आता है, यह सब जीतव्यवहार है। गाथा में आए 'मुहणंतगफिड़िय' की टीका- मुख पोतिकायां स्फिटितायां, मुखपोतिकामंतरेणित्यर्थः / मुखवंस्त्रिका को इधर उधर रखने वाला, मुख पर नहीं रखने वाला / इन पाँच व्यवहारियों द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त आगमव्यवहार यावत् जीतव्यवहार कहा जाता है। इस सूत्र विधान का आशय यह है कि पहले कहा गया व्यवहार और व्यवहारी प्रमुख होता है। उसकी अनुपस्थिति में ही बाद में कहे गए व्यवहार और व्यवहारी को प्रमुखता दी जा सकती है। अर्थात् जिस विषय में श्रुत व्यवहार उपलब्ध हो उस विषय के निर्णय करने में धारणा या जीतव्यवहार को प्रमुख नहीं करना चाहिए। व्युत्क्रम से प्रमुखता देने में स्वार्थ भाव या राग, द्वेष आदि होते हैं, निष्पक्ष भाव नहीं रहता है। इसी आशय को सूचित करने के लिए सूत्र के अंतिम अंश में राग-द्वेष एवं पक्षपात भाव से रहित होकर यथाक्रम से व्यवहार करने की प्रेरणा दी गई है। साथ ही सूत्र निर्दिष्ट क्रम से एवं निष्पक्ष भाव से व्यवहार करने वाले को आराधक कहा गया है। अतः पक्षभाव से एवं व्युत्क्रम से व्यवहार करने वाला विराधक होता है, यह [184]