________________ आगम निबंधमाला कार्तिक, मार्गशीर्ष, पोष और माघ मास है। अर्थात् इन गर्भमासों में कभी-कभी, कहीं-कहीं घूअर या महिका गिरती है। किसी वर्ष किसी क्षेत्र में नहीं भी गिरती है। पर्वतीय क्षेत्रों में बादलों के गमनागमन करते रहने के समय भी ऐसा दृश्य होता है। किन्तु उनका स्वभाव धुंअर से भिन्न होता है अतः उनका अस्वाध्याय नहीं होता है। धुंअर से भूमि एवं छत पानी युक्त हो जाते है किंतु बादलों के चलने से नहीं होते हैं। (10) रजोद्घातः-आकाश में धूल छा जाना और रज का गिरना। यह जब तक रहे तब तक अस्वाध्याय होता है / भाष्य में बताया है कि तीन दिन सचित्त रज गिरती रहे तो उसके बाद स्वाध्याय के सिवाय प्रतिलेखन आदि भी नहीं करना चाहिए क्यों कि सर्वत्र सचित्त रज व्याप्त हो जाती है। ये दस आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय है। औदारिक अस्वाध्याय :- (11,12,13) हड्डी-मांस-खून / तिर्यंच की हड्डी या मांस 60 हाथ और मनुष्य की हड्डी मांस 100 हाथ के भीतर दृष्टिगत हो तो अस्वाध्याय होता है / हड्डियाँ जली हुई या धुली हुई हो तो उसका अस्वाध्याय नहीं होता है। अन्यथा उसका 12 वर्ष तक अस्वाध्याय होता है / इसी तरह दांत के लिए भी समझना चाहिए। खून जहाँ दृष्टिगोचर हो या गंध आवे तो उसका अस्वाध्याय होता है अन्यथा अस्वाध्याय नहीं होता है। अर्थात् 60 हाथ या 100 हाथ की मर्यादा इसके लिए नहीं है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के खून का तीन प्रहर और मनुष्य के खून का अहोरात्र तक अस्वाध्याय रहता है। उसके बाद अस्वाध्याय नहीं रहता है। .. उपाश्रय के पास किसी घर में लड़की उत्पन्न हो तो आठ दिन और लड़का हो तो 7 दिन अस्वाध्याय रहता है। इसमें दीवाल से संलग्न सात घर की मर्यादा मानी जाती है। तिर्यंच सम्बन्धी प्रसूति में जरा गिरने के बाद तीन प्रहर का अस्वाध्याय समझना चाहिए। (14) अशुचि :- मनुष्य का मल जब तक सामने दीखता हो या गंध आती हो तब तक वहाँ अस्वाध्याय समझना चाहिए। तिर्यंच के मल की दुर्गन्ध आती हो तो अस्वाध्याय होता है, अन्यथा नहीं। मनुष्य के मूत्र की जहाँ दुर्गन्ध आती हो ऐसे मूत्रालय आदि के निकट [193