________________ आगम निबंधमाला तो भी उसे सेवा का कार्य समाप्त होने पर ही छोटा से छोटा प्रायश्चित्त देने का विधान है। यह सेवा कार्य का सन्मान है कि उसके व्यक्तिगत अपराध को भी गौण कर दिया जाता है। तब निःस्वार्थ सेवारत भिक्षुओं को छेद जैसा प्रायश्चित्त देना जिनशासन का महान अपराध है एवं सेवा कृत्य का अबहुमान है। शास्त्रकार तो सेवा काल में हुई उसकी संयम स्खलनाओं की शुद्धि हेतु छोटा से छोटा प्रायश्चित्त देने का ही स्पष्ट निर्देश करते हैं। अतः प्रायश्चित्त दाताओं को इस ओर भी विशेष ध्यान देकर गतानुगतिक परंपरा के निर्णयों में सुधार करना चाहिये / क्यों कि अयोग्य और अनुचित अथवा आगम विपरीत प्रायश्चित्त देने वाले को निशीथ उद्देशक 10 के अनुसार गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। सेवा करने वाले की संयम स्खलनाएँ- (1) डाक्टर को बुलाना एवं उनसे बारंबार सम्पर्क करना (2) क्रीत औषध लाकर देना या खरीद कर मंगाना (3) डाक्टरों के आरंभ युक्त प्रवृत्तियों में सहयोग देना (4) रोगी मुनि के साथ अस्पताल में रहना (5) संयम मर्यादाओं में रोगी के लिये अपवाद सेवन करना (6) गवेषणा के नियमों का पालन न होना (7) रोगी के साथ जाने हेतु वाहन प्रयोग करना इत्यादि यथा प्रसंग अनेक प्रवृतियों को उदाहरणार्थ समझ लेना चाहिये। ये प्रवृत्तियाँ भी निःश्वार्थ भाव से केवल रोगी की सेवा परिचर्या भावना से ओतप्रोत होकर की जाती है इसलिये इनका गुरु प्रायश्चित्त या छेद प्रायश्चित्त नहीं आता हैं। तुल्ला चेव उ ठाणा, तव-छेयाणं हवंति दोण्हं पि / पणगाइ पणगवुड्डी, दोण्ह वि छम्मास निट्ठवणा // 707 // तपश्छेदयोर्द्वयोरपि स्थानानि तुल्यान्येव भवन्ति, न हीनानि नाप्यधिका- नीति एव शब्दार्थः / कुतः ? इत्याह- "पणगा" इत्यादि / यतः "द्वयोरपि" तपश्छेदयोः पंचक-पंच रात्रिन्दिवान्यादौ कृत्वा पंचकवृद्धया वर्द्धमानानां स्थानानां षण्मासेषु "निष्ठापना" समापना भवति। इयमत्र भावना- लघुपंचकादीनि गुरूषाण्मासिकपर्यन्तानि यान्येव तपः स्थानानि तान्येव च्छेदस्यापीति तुल्यान्येवानयोः स्थानानि / एतेन च 143