________________ आगम निबंधमाला दिया जाता है। इस प्रकार 1300 वर्ष पूर्व के प्राचीन व्याख्याकारों ने छः मास से अधिक छेद प्रायश्चित्त देने का स्पष्ट निषेध किया है / शास्त्र में साधु का दूसरा मनोरथ ही अकेले रह कर आत्म उन्नति करने का है। कई आगमों में अकेले रहने की प्रेरणा भी की गई है। सपरिस्थितिक या अपरिस्थितिक एवं प्रशस्त या अप्रशस्त इत्यादि एकल विहारों का विशेष वर्णन है। व्यवहार सूत्र में वृद्धावस्था वाले विशेष कारणिक शरीरी एकल विहारी के प्रति सद्भावना पूर्ण वर्णन है। ऐसी स्थिति में संघ के आचार्य, उपाध्याय एवं अनेक गच्छ प्रमुख गतानुगतिक होकर आगम विरूद्ध खोटी परंपरा को पकड़ कर उतने ही समय का दीक्षा छेद प्रायश्चित्त देकर एकल विहार का घोर अपमान करके स्वयं की अगीतार्थता और अबहुश्रुतता प्रकट करते हैं। एवं लकीर के फकीर बनते हैं। उन्हें पूछ लिया जाय कि एकल विहारी को उतने दिन का दीक्षा कट का प्रायश्चित्त आप किसी आगम प्रमाण से देते हैं? प्रमाणित करिये। तो उन्हें इधर-उधर बगले झाँकने के कर्तव्य करते ही पाया जायेगा। अतः पूज्य आचार्य, उपाध्याय एवं प्रवर्तक आदि पदवीधरों तथा गच्छ प्रमुखों से निवेदन है कि वे पहले अच्छी तरह छेद सूत्रों के व्याख्या ग्रन्थों से प्रायश्चित्त विधानों एवं उनके मर्मों को समझें, सच्चे बहुश्रुत बनें, फिर गच्छ प्रमुख या पदवीधर कहलावें / ऐसा न कर सकते तो अबहुश्रुत अवस्था के अपने लिये हुए पद का मोह न करते हुए उसका सहर्ष त्याग कर सामान्य साधक अवस्था में रह कर ही जिन शासन में संयम साधना करें। किन्तु अबहुश्रुत होकर जिन शासन के पदों की शान न बिगाड़ें। . वर्तमान में छः महीने से अधिक तप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है ऐसा सभी श्रमण सामान्य रूप से समझते है किन्तु छेद प्रायश्चित्त भी छ:मास से अधिक नहीं दिया जाता है, यह निशीथ उद्दे. 20 की व्याख्या में चर्चा सहित स्पष्ट किया गया है। प्रमाण के लिये कोई भी जिज्ञासु निशीथचूर्णि, भाग-४ पृ.३५१-५२ देखें तथा व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देशक का भाष्य टीका एवं बृहत्कल्प भाष्य गाथा 707 एवं 710 भी 141