________________ आगम निबंधमाला सूक्ष्म विश्लेषण किस ईमानदारी से करना चाहिए। दृष्टांत :- एक विद्वान ऋषि कहीं से गुजर रहे थे। भूख और प्यास से अत्यंत व्याकुल थे। द्वादशवर्षी भयंकर दुर्भिक्ष था। राजा के कुछ हस्तीपक (पीलवान) एक जगह साथ बैठकर भोजन कर रहे थे। ऋषि ने भोजन मांगा। उत्तर मिला-'भोजन तो झूठा है' ऋषि बोले- 'झूठा है तो क्या, आखिर पेट तो भरना है' 'आपत्काले मर्यादा नास्ति' भोजन लिया, खाया और चलने लगे तो उन लोगों ने जल लेने को कहा, तब ऋषि ने उत्तर दिया- 'जल झूठा है, मैं नहीं पी सकता' / लोगों ने कहा कि मालूम होता है कि- 'अन्न पेट में जाते ही बुद्धि लौट आई है'। ऋषि ने शांत भाव से कहा बन्धुओं ! तुम्हारा सोचना ठीक है किन्तु मेरी एक मर्यादा है। अन्न अन्यत्र मिल नहीं रहा था और मैं भूख से इतना व्याकुल था कि प्राण कंठ में आ रहे थे और अधिक सहने की क्षमता समाप्त हो चुकी थी, अतः मैंने झूठा अन्न भी अपवाद की स्थिति में स्वीकार कर लिया। अब जल तो मेरी मर्यादा के अनुसार अन्यत्र शुद्ध मिल सकता है। अतः व्यर्थ ही झूठा जल क्यों पीऊँ। संक्षेप में सार यह कि जब तक चला जा सकता है उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना चाहिए, जब चलना सर्वथा दुस्तर हो जाय, दूसरा कोई इधर-उधर बचाव का मार्ग न रहे तब ही अपवाद मार्ग का सेवन करना चाहिए और ज्यों ही स्थिति सुधर जाय पुनः तत्क्षण उत्सर्ग मार्ग पर लौट आना चाहिए। ... उत्सर्ग मार्ग सामान्य मार्ग है। यहाँ कौन चले कौन नहीं चले, इस प्रश्न के लिये कुछ भी स्थान नहीं है। जब तक शक्ति रहे, उत्साह रहे, आपत्ति काल में भी किसी प्रकार का ग्लानिभाव न आवे, धर्म एवं संघ पर किसी प्रकार का उपद्रव न हो अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र की क्षति का कोई विशेष प्रसंग उपस्थित न हो, तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना है, अपवाद मार्ग पर नहीं। अपवाद मार्ग पर कभी कदाचित् ही चला जाता है / इस पर हर कोई साधक हर किसी समय नहीं चल सकता है। जो संयमशील |147