________________ आगम निबंधमाला अग्निकाय की विराधना होना संभव है किन्तु अल्पपरिचित या अल्प अनुरागी घरों में उक्त दोष की संभावना नहीं रहती है। अतः उन कुलों में उक्त नियम की उपयोगिता नहीं है। इसीलिए यह विधान आगमों में अनेक स्थलों में केवल ज्ञातिजनों के कुल के साथ ही जोड़ा गया है। स्वतन्त्र रूप से एसणा के 42 दोषों में नहीं कहा गया है। निबंध- 38 साधु-साध्वी के योग्य मकान की गवेषणा ___ निशीथसूत्र उद्देशक-५, सूत्र-३६ से ३८में सदोष शय्या उपाश्रय संबंधी प्रायश्चित्त विधान है। जिसमें (1) सूत्र 36 में केवल जैन साधु के उद्देश्य से अथवा जैन साधु युक्त अनेक प्रकार के साधुओं या पथिकों के उद्देश्य से बनायी गयी धर्मशाला आदि 'उद्देशिक-शय्या' है। (2) सूत्र-३७ में गृहस्थ के अपने लिये बनाये जाने वाले मकान का या परिकर्म के कार्य का निर्धारित समय साधु के निमित्त से आगे-पीछे करने पर या शीघ्रता से करने पर अर्थात् अनेक दिन का कार्य एक दिन में करने पर, वह गृहस्थ का व्यक्तिगत मकान भी 'सपाहुड़ शय्या' हो जाती है। (3) सूत्र-३८ में मकान गृहस्थ के लिये बना हुआ है। उसमें साधु के लिये परिकर्म कार्य करने पर गृहस्थ के उपयोग में आने के पूर्व कुछ काल तक वह मकान 'सपरिकर्म शय्या' है। इन तीन प्रकार के दोषयुक्त शय्या में प्रवेश करने का अथवा रहने का लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा गया है। दूसरे व तीसरे दोष वाली शय्या का मौलिक निर्माण गृहस्थ के स्वप्रयोजन से होता है और प्रथम दोष वाली शय्या में बनाने वालों का स्वप्रयोजन नहीं होकर केवल पर-प्रयोजन से उसका निर्माण किया जाता है, यह अन्तर ध्यान में रखना चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध उपाश्रयों की कल्प्याकल्प्यता : साधु-साध्वी के ठहरने के स्थान को आगम में 'शय्या, वसति एवं उपाश्रय' कहा जाता है। (1) कल्प्य- दोष रहित, पूर्ण शुद्ध, साधु-साध्वी के ठहरने योग्य / (2) अकल्प्य- दोष युक्त, साधु-साध्वी के ठहरने के अयोग्य / - / 154]