________________ आगम निबंधमाला आता है, ऐसा इन सूत्रों का तात्पर्य समझना चाहिए। . नौका विहार सम्बन्धी विधि निषेध का तथा उपसर्गजन्य स्थिति का विस्तृत वर्णन आचारांग, श्रु. 2, अ. 3, उद्दे०-१,२ में स्वयं सूत्रकार ने किया है। अतः तत्सम्बन्धी अर्थ विवेचना एवं शब्दार्थ वहीं से जानना चाहिए। अन्य जानकारी के लिये निशीथ उद्देशक 12 तथा 18 एवं बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कंध का विवेचन देखना चाहिये। निबंध- 43 एषणा के 42 दोष उद्गम के 16 दोष :- (1) व्यक्तिगत किसी साधु के निमित्त अग्नि, जल आदि का आरंभ करके कोई वस्तु बनाना आधाकर्म दोष है। (2) साधुओं के किसी एक या अनेक समूह की अपेक्षा अग्नि, पानी आदि का आरंभ करके कोई वस्तु तैयार करना औद्देशिक दोष है / (3) प्रथम दोष (आधाकर्म) युक्त पदार्थ का लेप मात्र भी जिस किसी निर्दोष आहार में लग जाय तो वह आहार पूतिकर्म दोष वाला कहा जाता है। (4) गहस्थ स्वयं के लिए एवं साधुओं के लिए अर्थात् दोनों के मिश्रित उद्देश्य से अग्नि पानी का आरंभ करके कोई वस्तु तैयार करे तो वह वस्तु मिश्र जात दोष वाली होती है / (5) अचित्त एवं निर्दोष वस्तु को लम्बे समय के लिए साधु के निमित्त स्थापित कर दे और अन्य किसी काम में नहीं ले या किसी को भी नहीं दे, केवल श्रमण के लिए देना निश्चित कर दे, तो वह वस्तु ठवणा स्थापना दोषयुक्त कही जाती है / यह घर की उपयोगी वस्तु की अपेक्षा है किन्तु घर के उच्छिष्ट फैंकने योग्य अचित जल को मुनियों के लिए संभाल कर रखा जाता है, उसे स्थापना दोष नहीं समझना चाहिए। वह तो श्रमणोपासक का विवेक कर्तव्य है / (6) कोई भी वस्तु गहस्थ के लिए बनने वाली है उसके समय में मुनि के निमित्त परिवर्तन करे अर्थात् सहज बनने के समय से कुछ पहले बनावे |165