________________ आगम निबंधमाला दोष वाला पाट कब तक अकल्प्य रहता है और कब कल्प्य हो जाता है, इस प्रकार के स्पष्ट कथन करने वाले पाठ भी उपलब्ध नहीं होते हैं। आचा. श्रु.-२, अ.-२, उ.-३ में पाट से सम्बन्धित जो पाठ है उसका सार यह है कि साधु-साध्वी पाट ग्रहण करना चाहे तो उन्हें यह ध्यान रखना आवश्यक है- 1. उसमें कहीं जीव-जन्तु तो नहीं है / 2. गृहस्थ उसे पुनः स्वीकार कर लेगा या नहीं। 3. अधिक भारी तो नहीं है। 4. जीर्ण या अनुपयोगी तो नहीं है। इस प्रकार यदि वह पाट जीवरहित, प्रतिहारिक, हल्का एवं स्थिर(मजबूत) है तो ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा नहीं लेना चाहिए। . इसके अतिरिक्त पाट से सम्बन्धित दोषों का कथन आगमों में उपलब्ध नहीं है। पाट आदि के निर्माण में केवल परिकर्म कार्य ही किये जाते हैं। जो मकान के पुरुषान्तरकृत कल्पनीय दोषों से अत्यल्प ही होते हैं अर्थात् इनके बनने में अग्नि, पृथ्वी आदि की विराधना नहीं होती है। अप्काय की विराधना भी प्रायः नहीं होती है। अतः आधाकर्मादि दोषों की इसमें सम्भावना नहीं है। इसलिए इनके बनाने में केवल परिकर्म दोष या क्रीतदोष ही होता है। क्रीत मकान या परिकर्म दोष युक्त मकान के कल्पनीय होने के समान ही इन उक्त दोनों विभाग के दोषों वाले पाटों को भी कालान्तर से अथवा गृहस्थ के उपयोग में आ जाने के बाद कल्पनीय समझ लेना चाहिए। संप्रदायों संबंधी औद्देशिक दोष का विमर्श- जैन साधुओं के 1. दिगम्बर 2. श्वेताम्बर मंदिरमार्गी. 3. स्थानक वासी 4. तेरहपंथी आदि रूप जो भेद है, उनमें से एक संघ के साधुओं के उद्देश्य से बना हुआ आहार या मकान दूसरे संघ के साधुओं के लिये औद्देशिक दोषयुक्त नहीं है। इस विषय का कथन मूल आगमों में नहीं है किन्तु प्राचीन व्याख्या ग्रंथों में है। उसका आशय यह है कि जिनके सिद्धान्त और वेश समान हो वे प्रवचन एवं लिंग(उभय) से साधार्मिक कहे जाते हैं। इस प्रकार के साधर्मिक साधु के लिये बना आहार मकान आदि दूसरे साधर्मिकों के लिये भी कल्पनीय नहीं होता है / औद्देशिक या आधाकर्मी दोष वाला होता है / ___ उपर्युक्त चारों जैन विभागों के वेश और सिद्धांतों में भेद पड़ [158