________________ आगम निबंधमाला साधारण में कई प्रकार की कुशंकाएँ उत्पन्न हो सकती है / अतः सूत्रोक्त विधान के अनुसार ही साधु-साध्वियों को आचरण करना चाहिए एवं परस्पर सेवा या आलोचना आदि नहीं करना या नहीं करवाना चाहिए। परस्पर किये जाने वाले सेवा के कार्य :- (1) आहार-पानी लाकर देना या लेना अथवा निमन्त्रण करना। (2) वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों की याचना करके लाकर देना या स्वयं के याचित उपकरण देना। (3) उपकरणों का परिकर्म कार्य-सीना, जोड़ना, रोगानादि लगाना। (4) वस्त्र, रजोहरण आदि धोना / (5) रजोहरण आदि उपकरण बनाकर देना। (6) प्रतिलेखन आदि कर देना। इत्यादि अनेक कार्य यथासम्भव समझ लेने चाहिए, जिन्हें आगाढ़ परिस्थितियों के बिना परस्पर करनाकरवाना साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता है एवं करने-करवाने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। आचार्य आदि पदवीधरों के भी प्रतिलेखना आदि सेवा कार्य केवल भक्ति प्रदर्शित करने के लिये साध्वियाँ नहीं कर सकती है / यदि आचार्य आदि इस तरह साध्वियों से अपना कार्य अकारण करवावें तो वे भी गुरु चौमासी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। तात्पर्य यह है कि साथ में रहने वाले साधु जो सेवा कार्य कर सकते हों तो साध्वियों से नहीं कराना चाहिए। उसी प्रकार साध्वियों को भी जब तक अन्य साध्वियाँ करने वाली हों तब तक साधुओं से अपना कोई भी कार्य नहीं करवाना चाहिए। निबंध- 35 श्रुत अध्ययन एवं भिक्षु पडिमा (अंतगड़सूत्र-व्यवहारसूत्र) अंतकृत दशा सूत्र में 88 श्रमण-श्रमणियों के श्रुत अध्ययन का वर्णन है जिसमें- ग्यारह अंग को कंठस्थ करने वाले-६६ हैं। द्वादश अंग-चौदह पूर्व कंठस्थ करने वाले-२२ हैं। इनमें ग्यारह अंग कंठस्थ करने वालों की दीक्षा पर्याय पाँच वर्ष से लेकर अनेक वर्षों की है। चौदह पूर्व-बारह अंग कंठस्थ करने वालो की दीक्षा पर्याय 16 और 20 वर्ष है।