________________ आगम निबंधमाला है। अतः किसी भी दोष का छः मास तप या छेद से अधिक प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। क्योंकि अधिक प्रायश्चित्त देने पर "तेणं परं" इस सूत्रांश से एवं भाष्योक्त परम्परा से विपरीत आचरण होता है / मूल (नई दीक्षा) प्रायश्चित्त भी तीन बार दिया जा सकता है और छ: मास का तप और छः मास का छेद भी तीन बार ही दिया जा सकता है। उसके बाद आगे का प्रायश्चित्त दिया जाता है / अंत में गच्छ से निकाल दिया जाता है। निबंध- 32 6 महीने से अधिक कोई भी प्रायश्चित नहीं (1) साधु जितने समय अकेला विचरण करे उतने समय का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त / (2) छः महीनों से अधिक यावत् अनेक वर्षों का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त / . उक्त दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त आगम विपरीत है। क्यों कि साधु के अकेले रहने का प्रायश्चित्त विधान किसी भी सूत्र में (32 सूत्र में) नहीं है / निशीथ सूत्र में सेकड़ों प्रायश्चित्त विधान है उनमें भी उक्त प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं है ।तब फिर उतने ही दिन की दीक्षा कट करना अर्थात् सातवाँ प्रायश्चित्त देना आगमानुसार नहीं है। अन्य भी किसी विषय में उतने ही दिन का प्रायश्चित्त देने का विधान किसी भी आगम में नहीं है फिर भी वैसा अर्थ करने की एक भ्रमित परंपरा चल पड़ी है। जबकि उन्हीं सूत्रों के व्याख्या ग्रन्थों में उन सूत्रों का वैसा अर्थ करने की प्रणाली नहीं है, यह स्पष्ट है। छेद प्रायश्चित्त देने की विधि बताते हुए व्याख्याकारों ने जघन्य 5 दिन के छेद प्रायश्चित्त से प्रारंभ करके 10, 15 दिन यावत् 6 महीने के छेद तक प्रायश्चित्त की वृद्धि करने का क्रम दिया है। उसके बाद चर्चा विचारणा करके स्पष्ट किया है कि 24 वें तीर्थंकर के शासन में तप और छेद प्रायश्चित्त छः मास से अधिक देने का विधान नहीं है। यह 6 मास का उत्कृष्ट छेद प्रायश्चित्त भी किसी गलती के बारंबार करने पर तीन बार दिया जा सकता है उसके बाद चौथी बार उसे नई दीक्षा का प्रायश्चित्त [140