________________ आगम निबंधमाला गाथा 6499 में कहा है कि 19 उद्देशकों में कहे गये प्रायश्चित्त ज्ञान दर्शन चारित्र के अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार एवं अनाचार के हैं। इनमें से स्थविरकल्पी को किसी अनाचार का आचारण करने पर ही प्रायश्चित्त आते हैं और जिनकल्पी को अतिक्रम आदि चारों के ये प्रायश्चित्त आते हैं। 1. अतिक्रम = दोष सेवन का संकल्प। 2. व्यतिक्रम = दोष सेवन के पूर्व की तैयारी प्रारंभ / 3. अतिचार = दोष सेवन के पूर्व की प्रवृत्ति का लगभग पूर्ण हो जाना। 4. अनाचार = दोष का सेवन कर लेना। जैसे कि - 1. आधाकर्मी आहार ग्रहण करने का संकल्प, 2. उसके लिए जाना, 3. लाकर रखना, 4. खा लेना। स्थविरकल्पी को अतिक्रमादि तीन से व्युत्सर्ग तक के पाँच प्रायश्चित्त आते हैं एवं अनाचार सेवन करने पर उन्हें आगे के पाँच प्रायश्चित्तों में से कोई एक प्रायश्चित्त आता है। परिहार तप एवं शुद्ध तप किन-किन को दिया जाता है यह वर्णन भाष्य गाथा 6586 से 91 तक में है। वहाँ पर यह भी कहा है कि साध्वी को एवं अगीतार्थ, दुर्बल और अंतिम तीन संघयण वाले भिक्षु को शुद्ध तप प्रायश्चित्त ही दिया जाता है, परिहार तप नहीं दिया जाता है / 20 वर्ष की दीक्षा पर्यायवाले को, 29 वर्ष की उम्र से अधिक वय वाले को, उत्कृष्ट गीतार्थ 9 पूर्व के ज्ञानी को, प्रथम संहनन वाले को तथा अनेक अभिग्रह तप साधना के अभ्यासी को परिहार तप दिया जाता है। भाष्य गाथा. 6592 में परिहार तप देने की पूर्ण विधि का वर्णन किया गया है। ___ व्यवहार सूत्र प्रथम उद्देशक के सूत्र 5, 10 तथा 11 से 14 तक के सूत्रों में "तेण परं पलिउंचिय अपलिउंचिय ते चेव छम्मासा" यह वाक्य है इसका आशय यह समझना चाहिए कि इसके आगे कोई 6 मास या 7 मास के योग्य प्रायश्चित्त का पात्र हो अथवा कपट सहित या कपट रहित आलोचना करने वाला हो तो भी यही छः मास का प्रायश्चित्त आता है इससे अधिक नहीं आता है। सुबहुहिं वि मासेहिं, छण्हं मासाण परं ण दायव्वं // 6524 // | 138]