________________ आगम निबंधमाला चूर्णि- तकारिहेहिं बहुहिं मासेहिं छम्मासा परं ण दिज्जइ, सव्वस्सेव एस णियमो, एत्थ कारणं जम्हा अहं वद्धमाण सामिणो एवं चैव परं पमाणं ठवितं / भावार्थ- वर्धमान महावीर स्वामी के शासन में इतने ही प्रायश्चित्त की उत्कृष्ट मर्यादा है और सभी साधु-साध्वी के लिए यह नियम है / अगीतार्थ, अतिपरिणामी, अपरिणामी साधु-साध्वी को 6 मास का तप ही दिया जाता है, छेद प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है / किन्तु दोष को पुनः पुनः सेवन करने पर या आकुट्टी बुद्धि अर्थात् मारने क संकल्प से पंचेन्द्रिय की हिंसा करने पर या दर्प से कुशील के सेवन करने पर इन्हें छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है तथा छेद के प्रति उपेक्षावृत्ति रखने वालों को "मूल प्रायश्चित्त" दिया जाता है। . अन्य अनेक छोटे बड़े दोषों के सेवन करने पर प्रथम बार में छेद या मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है, किन्तु जिसे एक बार इस प्रकार की चेतावनी दे दी गई है कि "हे आर्य ! यदि बारंबार यह दोष सेवन किया तो छेद या मूल प्रायश्चित्त दिया जायेगा" उसे ही छेद या मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। जिसे इस प्रकारकी चेतावनी नहीं दी गई है उसे छेद या मूल प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता है। भाष्य में चेतावती दिये गये साधु को 'विकोवित' एवं चेतावनी नहीं दिये गये साधु को 'अविकोवित' कहा गया है विकोवित को भी प्रथम बार लघु दूसरी बार गुरु एवं तीसरी बार छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। छेद प्रायश्चित्त भी उत्कृष्ट छः मास का होता है तथा तीन बार तक दिया जा सकता है उसके बाद मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। यथा :- छम्मासोवरी जई पुणो आवज्जइ तो तिण्णि वारा लहु चेव छेदो दायव्वो। एस अविसिट्ठो वा तिण्णि वारा छल्लहु छेदो। अहवा:- जं चेव तव तियं तं चेव छेदतियं पि-मासब्भंतरं, चउमासब्भंतरं च, जम्हा एवं तम्हा भिण्णमासादि जाव छम्मासं, तेसु छिण्णेसु छेय तियं अतिक्कंतं भवति / ततो वि जति परं आवज्जति तो तिण्णि वारं मूलं दिज्जति / - चूर्णि भाग-४, पृ. 351-52 / - इससे यह स्पष्ट होता है कि वर्धमान महावीर स्वामी के शासन में तप और छेद प्रायश्चित्त छः मास से अधिक देने का विधान नहीं 139 /