________________ आगम निबंधमाला पंचासवपवत्तो, जो खलु तिहिं गारवेहिं पडिबद्धो / इत्थि-गिहि सकिलिट्ठो, संसत्तो सो य णायव्वो // 4351 // जो हिंसा आदि पाँच आश्रवों में प्रवृत्त होता है / ऋद्धि, रस, साता इन तीन गौं में प्रतिबद्ध होता है / स्त्रियों के साथ भी मिल जाता है और गृहस्थों से संश्लिष्ट होता है अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से गृहस्थ के परिवार, पशु आदि के सुख-दुःख सम्बन्धी कार्य करने में प्रतिबद्ध हो जाता है, इस प्रकार जैसा चाहे वैसा बन जाता है वह संसक्त है। चूर्णि- अहवा-संसत्तो अणेगरुवी नटवत् एलकवत् / भावार्थ- जो नट के समान अनेक रूप और भेड़ की ऊन के समान अनेक रंगों को धारण कर सकता है एवं छोड़ सकता है, ऐसा बहुरूपिया स्वभाव वाला "संसक्त" कहा जाता है। : ५-नितिय-नित्यक :- . जो मासकल्प व चातुर्मासिककल्प की मर्यादा का उल्लंघन करके निरंतर एक ही क्षेत्र में रहता है वह कालातिकांत-नित्यक कहलाता है, तथा मासकल्प और चातुर्मासिक कल्प पूरा करके अन्यत्र दुगुणा समय बिताये बिना उसी क्षेत्र में पुनः आकर निवास करता है; वह “उपस्थाननित्यक" कहलाता है / इस प्रकार आच० श्रु 2, अ०२, ऊ२ में कही गई उपस्थान क्रिया का तथा कालातिक्रांत क्रिया का सेवन करने वाला नित्यक-नितिय कहलाता है / अथवा जो अकारण सदा एक स्थान पर ही स्थिर रहता है, विहार नहीं करता है वह भी नित्यक कहा जाता है / ६-काहिय(काथिक) : __ सज्झायादि करणिज्जे जोगे मोत्तुं जो देसकहादि कहातो कहेति सो काहिओ // -चूर्णि भाग 3 प. 398 / स्वाध्याय आदि आवश्यक कृत्यों को छोड़ करके जो देशकथा आदि कथाएँ करता रहता है वह काथिक कहा जाता है / आहार, वस्त्र, पात्र, यश या पूजा-प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए जो 78.