________________ आगम निबंधमाला निबंध- 22 आचार्य पद की आवश्यकता एवं संपदा . __साधु-साध्वियों के समुदाय की समुचित व्यवस्था के लिए आचार्य का होना नितान्त आवश्यक होता है / व्यवहार सूत्र उद्देशक तीन में नवदीक्षित(तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय तक), बालक (16 वर्ष की उम्र तक), एवं तरुण(४० वर्ष की वय तक के) साधु-साध्वियों को आचार्य एवं उपाध्याय की निश्रा के बिना रहने का स्पष्ट निषेध है। साथ ही शीघ ही अपने आचार्य, उपाध्याय के निश्चय करने का ध्रुव विधान किया है। साध्वी के लिए 'प्रवर्तिनी की निश्रा सहित तीन पदवीधरों की निश्रा होना आवश्यक कहा है। ये पदवीधर शिष्य शिष्याओं के व्यवस्थापक एवं अनुशासक होते हैं / अतः इनमें विशिष्ट गुणों की योग्यता होना आवश्यक है। व्यवहार सूत्र के तीसरे उद्देशक में इनकी आवश्यक एवं औचित्य पूर्ण योग्यता के गुण कहे गए हैं जो आगे निबंध नं. 28 द्वारा समझाये गये हैं। दशाश्रुत स्कंध सूत्र, दशा-४में आचार्य के आंठ मुख्य गुण कहे हैं जिन्हें आठ संपदा भी कहा जाता है, यथा१. आचार सम्पन्न- संपूर्ण संयम सम्बन्धी जिनाज्ञा,का पालन करने वाला, क्रोध मानादि कषायों से रहित सुन्दर स्वभाव वाला। 2. श्रुत सम्पन्न- आगमोक्त अनुक्रमानुसार अनेक शास्त्रों को कंठस्थ धारण करने वाला एवं उनके अर्थ, परमार्थ को धारण करने वाला। 3. शरीर सम्पन्न-समुचित संहनन संस्थान वाला एवं सशक्त और स्वस्थ शरीर वाला। 4. वचन सम्पन्न- आदेय वचन वाला, मधुर वचन वाला, राग-द्वेष रहित एवं भाषा सम्बन्धी दोषो से रहित वचन बोलने वाला। 5. वाचना सम्पन्न- सूत्रों के पाठों का उच्चारण करने-कराने में, अर्थ परमार्थ को समझाने में तथा शिष्य की क्षमता योग्यता का निर्णय करके शास्त्र ज्ञान देने में निपुण / योग्य शिष्यों को राग-द्वेष या कषाय रहित होकर अध्ययन कराने के स्वभाव वाला।