________________ आगम निबंधमाला तिवरिसो होई नवो, आसोलसगं तु डहरगं बैंति / तरुणो चत्तालीसो, सत्तरि उण मज्झिमो थेरओ सेसो // 220 // अर्थ :- तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय पर्यन्त भिक्षु नवदीक्षित कहा जाता है। चार वर्ष से लेकर सौलह वर्ष की उम्र पर्यन्त का साधु हर-बाल कहा जाता है। सोलह वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष पर्यन्त श्रमण तरुण कहा जाता है। सत्तर वर्ष में एक कम अर्थात् उनसत्तर(६९) वर्ष पर्यन्त मध्यम (प्रौढ़) कहा जाता है। सत्तर वर्ष से आगे शेष, सभी वय वाले स्थविर कहे जाते है। -भाष्य गा. 220 एवं उसकी टीका। आगम में साठ वर्ष वाले को स्थविर कहा है। -व्यवहार उ. 10, ठाणं अ. 3 / आगम का कथन स्थविर पद की अपेक्षा मुख्य है यहाँ भाष्य कथन वृद्धावस्था (बुढापे) की अपेक्षा है / भाष्यगाथा- 221 में यह स्पष्ट किया गया है कि नवदीक्षित भिक्षु बाल हो या तरुण हो, मध्यम वय वाला हो अथवा स्थविर हो, उसे आचार्य, उपाध्याय की निश्रा के बिना रहना या विचरण करना नहीं कल्पता है। अधिक दीक्षापर्याय वाला भिक्षु यदि चालीस वर्ष से कम वय वाला हो तो उसे भी आचार्य, उपाध्याय की निश्रा बिना रहना नहीं कल्पता है। तात्पर्य यह है कि. बाल या तरुण वय वाले भिक्षु और नवदीक्षित भिक्षु एक हो या अनेक हों, उन्हें आचार्य और उपाध्याय के निश्रा में ही रहना आवश्यक है जिस गच्छ में आचार्य, उपाध्याय कालधर्म को प्राप्त हो जाय अथवा जिस गच्छ में आचार्य, उपाध्याय न हों तो बाल,तरुण,नवदीक्षित भिक्षुओं को आचार्य, उपाध्याय के बिना या आचार्य, उपाध्याय रहित गच्छ में किंचित् भी रहना नहीं कल्पता है। उन्हें प्रथम अपना आचार्य नियुक्त करना चाहिए उसके बाद उपाध्याय निर्धारित करना चाहिए। सूत्र में प्रश्न किया गया है कि- हे भगवन् ! आचार्य, उपाध्याय बिना रहना ही नहीं ऐसा कहने का क्या आशय है ? इसका सामाधन मूलपाठ में यह किया गया है कि- ये उक्त वय वाले श्रमण निर्ग्रन्थ सदा दो से संग्रहीत होते हैं अर्थात् इनके लिए सदा दो का नेतृत्व होना अत्यन्त आवश्यक है- 1. आचार्य का 2. उपाध्याय का। तात्पर्य यह है - - - - -