________________ आगम निबंधमाला की निश्रा अथवा प्रवर्तक आदि की निश्रा स्वीकार करना आवश्यक है एवं अपनी प्रवर्तिनी नियुक्त करना भी आवश्यक है। अन्यथा उनका विहार भी आगम विरुद्ध विहार है। इन सूत्रों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्थानांग अ. 3 में कहे गये भिक्षु के दूसरे मनोरथ के अनुसार अथवा अन्य किसी प्रतिज्ञा को धारण करने वाला भिक्षु और दशवै. चू. 2, गाथा. 10; उत्तरा अ. 32, गा. 5; आचा. श्रु. 1, अ. 6, उ. 2; सूय. श्रु. 1, अ.१०, गा. 11 में कहे गये सपरिस्थितिक प्रशस्त विहार के अनुसार अकेला विचरण करने वाला भिक्षु भी यदि नव डहर या तरुण है तो उसका वह विहार आगम विरुद्ध है / अत: उपर्युक्त आगमसम्मत एकल विहार भी प्रौढ एवं स्थविर भिक्ष ही कर सकते हैं जो नव दीक्षित न हों। तात्पर्य यह है कि तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय और चालीस वर्ष की उम्र के पहले किसी भी प्रकार का एकल विहार या गच्छ- त्याग करना उचित नहीं है और वह आगम विपरीत है। बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला पर्याय स्थविर होने से 29 वर्ष की वय में ही आचार्य की आज्ञा लेकर उनकी निश्रा में रहता हुआ एकल विहार साधनाएँ कर सकता है। किन्तु सपरिस्थितिक एकल विहार या गच्छ त्याग 40 वर्ष के पूर्व नहीं कर सकता। ऐसे स्पष्ट विधान वाले सूत्र एवं अर्थ के उपलब्ध होते हुए भी समाज में निम्न प्रवृतियाँ या परम्पराएँ चलती हैं वे उचित नहीं कही जा सकती, यथा- (1) केवल आचार्य पद से गच्छ चलाना और उपाध्याय पद नियुक्त न करना। (2) कोई भी पद नियुक्त न करने के आग्रह से विशाल गच्छ को अव्यवस्थित चलाते रहना। (3) उक्त 40 वर्ष की वय के पूर्व ही गच्छ त्याग करना। ऐसा करने में स्पष्ट रूप से उक्त आगम विधान की स्वमति से उपेक्षा करना है। इस उपेक्षा से होने वाली हानियाँ भाष्य में इस प्रकार कही है- 1. गच्छगत साधुओं के विनय, अध्ययन, आचार एवं संयम समाधि की अव्यवस्था आदि अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। 2. साधुओं में स्वच्छंदता एवं आचार विचार की भिन्नता हो जाने से क्रमशः गच्छ का विकास न होकर अधःपतन होता है / 3. साधुओं में प्रेम serso- -