________________ आगम निबंधमाला आचार्य निर्दिष्ट कार्यों में तथा तप-संयम योग में, वैयावृत्य, सेवा, शश्रुषा, अध्ययन-अध्यापन आदि में नियुक्त करते हैं। इस पदवी वाले की योग्यता आचार्य तुल्य होना ही अत्युत्तम है। कम से कम उपाध्याय के तुल्य तो होना ही चाहिए। (4) स्थविर :- जो साधुओं के संयम में शैथिल्य देखकर. या उन्हें संयम से विचलित देखकर इस लोक-परलोक सम्बन्धी अपायों (अनिष्टों या दोषों) का उपदेश करे और उन्हें अपने कर्तव्यों में स्थिर करे। (5) गणी :- जो कुछ साधुओं के गण का स्वामी हो और साध्वियों की देख-रेख एवं व्यवस्था करने वाला हो। अथवा मुख्य आचार्य की निश्रा में जो अनेक आचार्य होते हैं उन्हें गणी कहा जाता है। (6) गणधर :- जो कुछ साधुओं का प्रमुख बनकर अर्थात् सिंघाड़ा प्रमुख बनकर विचरण करता हो। (7) गणावच्छेक :- जो साधुजनों के भक्त-पान, स्थान, विचरण, . औषध-उपचार, प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था करने वाला हो। जिस समुदाय में एक दो सिंघाड़े ही विचरते हैं या 5-7 संत ही है उस साधु समुदाय में स्थविर या प्रवर्तक का होना आवश्यक है आचार्य उपाध्याय होना वहाँ आवश्यक नहीं है। जिस समुदाय में तीन या अधिक सिंघाड़े विचरण करते हैं अथवा 10 से अधिक संतों का समूह है तो उस समुदाय में कम से कम आचार्य उपाध्याय दो पदों की नियुक्ति करना आवश्यक हैं / सौ से अधिक या सैकड़ो साधुओं का समुदाय हो उसमें आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणावच्छेदक ऐसे पाँचों पदवीधर होना आवश्यक होता है / -व्यवहार भाष्य / शेष दो पदवियाँ गणी और गणधर तो स्वाभाविक ही छोटे बड़े समुदायों में होती रहती है क्यों कि कुछ शिष्य सम्पदा हो जाने से एवं योग्य श्रुत अध्ययन हो जाने से कोई भी भिक्षु गणी बन सकता है और सिंघाड़े की प्रमुखता करने वाले अनेक गणधर-गणधारक हो सकते है। भाष्य में कहा गया है कि उक्त पाँच प्रमुख पदवियों से रहित विशाल गच्छ में नहीं रहना चाहिए क्यों कि वहाँ आत्म असमाधि एवं अव्यवस्था होने की पूर्ण सम्भावना रहती है। _ इसी प्रकार अल्पसंख्यक साध्वी समुदाय में प्रवर्तिनी या स्थविरा - - susummmuotuswanesemomenaana