________________ आगम निबंधमाला से चलता है। दस से अधिक संख्या हो तो प्रवर्तिनी होना आवश्यक है। एवं सौ से अधिक या सैकड़ों की संख्या हो तो गणावछेदिका का होना आवश्यक है। चालीस वर्ष तक की साध्वियों के लिए उपाध्याय का नेतृत्व आवश्यक है एवं सित्तर वर्ष तक की साध्वियो के लिए आचार्य का नेतृत्त्व आवश्यक होता है / व्यव. उद्दे. 7 / साध्वियों में भी सिंघाड़ा प्रमुखा और प्रवर्तिनियाँ अनेक हो सकती है। प्रवर्तिनी की योग्यता आचार्य, उपाध्याय के तुल्य समझनी चाहिए। छोटे समुदाय में उसकी योग्यता प्रवर्तक तुल्य समझना / समुदाय को व्यवस्थित चलाने के लिए ही इन पदवियों की आवश्यकता होती है, ऐसा समझना चाहिए। पन्यास, सूरी, मन्त्री, महामंत्री, सूरीश्वर, युवाचार्य, उपाचार्य, उपप्रवर्तक, गादीपति, गच्छाधिपति आदि पद आगम में नहीं कहे गए हैं और इन पदों की संघ व्यवस्था के लिए कोई आवश्यकता एवं उपयोगिता भी नहीं है एवं इन पदों के बिना ही सम्पूर्ण संघ व्यवस्था की जा सकती है जो आगम एवं उनकी व्याख्याओं के अध्ययन करने से समझ में आ सकती है। आचार्य, प्रवर्तक आदि को जब पद भार से निवृत्ति लेना हो तब उन्हें पद का त्याग करके अन्य योग्य को आचार्य, प्रवर्तक पद पर नियुक्त कर देना चाहिए / जीवन के अन्तिम समय तक किसी को कोई पद रखना जरूरी नहीं होता है। पद तो कार्य भार सम्भालने के लिए होता है और जब भार सम्भालने की क्षमता वृद्धावस्था के कारण न हो अथवा निवृत्त होकर साधना करना हो तो पद का त्याग किया जा सकता है ऐसा करने में कोई अपराध नहीं होता है न ही कोई अपमान / अतः उपाचार्य, उपप्रवर्तक, युवाचार्य गादीपति आदि पद आगम निरपेक्ष पद नहीं देने चाहिये / जो योग्य है एवं संघ व्यवस्था में उसे कार्य भार संभलाना आवश्यक है तो उसे आगमोक्त आचार्य, उपाध्याय एवं प्रवर्तक पद ही देना चाहिए / पद निवृत्त श्रमण स्थविर कहे जाते हैं। - विशाल समुदाय हो तो अनेक आचार्य, अनेक उपाध्याय और अनेक प्रवर्तक नियुक्त किए जा सकते हैं। किन्तु आगम से अतिरिक्त विभिन्न नए-नए पदों की परम्पराएँ चलाना अति प्रवृत्ति है। जो आगम [119 /