________________ आगम निबंधमाला जिनके एक या दो संघाटक ही अलग-अलग विचरते हों एवं उनमें कोई भी नवदीक्षित बाल या तरुण वय वाला न हों तो आचार्य उपाध्याय पदवीधर के बिना ही केवल वय या पर्यायस्थविर अथवा प्रवर्तक से उनकी व्यवस्था हो सकती है। व्यवहारसूत्र उद्देशक-३ में तीसरे-चौथे प्रथम सूत्रद्विक में उपाध्याय पद के, द्वितीय सूत्रद्विक में आचार्य उपाध्याय पद के और तृतीय सूत्रद्विक में अन्य पदों के(गणावछेद आदि के) योग्यायोग्य का कथन दीक्षापर्याय, श्रुत अध्ययन एवं अनेक गुणों के द्वारा किया गया है / जिसमें दीक्षा पर्याय और श्रुतअध्ययन की जघन्य मर्यादा तो, उपाध्याय से आचार्य की और उनसे गणवच्छेदक की अधिक अधिकतर कही है। इनके सिवाय मध्यम या उत्कृष्ट कोई भी दीक्षापर्याय एवं श्रुत-अध्ययन वाले को भी ये पद दिये जा सकते हैं / आचारकुशल आदि अन्य गुणों का सभी पदवीधरों के लिए समान रूप से निरुपण किया गया है अतः प्रत्येक पदयोग्य भिक्षु में वे गुण होना आवश्यक दीक्षापर्याय :- भाष्यकार ने बताया है कि दीक्षापर्याय के अनुसार ही प्रायः अनुभव, क्षमता, योग्यता का विकास होता है जिससे भिक्षु उन-उन पदों के उत्तरदायित्व को निभाने में सक्षम होता है / उपाध्याय का मुख्य उत्तरदायित्व अध्ययन कराने का है, जिसमें शिष्यों के अध्ययन सम्बन्धी सभी प्रकार की व्यवस्था की देख-रेख उन्हें रखनी पड़ती है / अतः इस पद के लिए जघन्य तीन वर्ष की दीक्षापर्याय होना आवश्यक कहा है। - आचार्य पर गच्छ की सम्पूर्ण व्यवस्थाओं का उत्तरदायित्व रहता है। वे अर्थ-परमार्थ की वाचना भी देते हैं। अतः अधिक अनुभव क्षमता की दृष्टि से उनके लिए न्यूनतम पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय होना आवश्यक कहा है। गणावच्छेदक गण सम्बन्धी अनेक कर्तव्यों को पूर्ण करके उनकी चिंता से आचार्य को मुक्त रखता है अर्थात् गच्छ के साधुओं की सेवा, विचरण एवं प्रायश्चित्त आदि व्यवस्थाओं का उत्तरदायित्व गणावच्छेदक का होता है। यद्यपि अनुशासन का पूर्ण उत्तरदायित्व आचार्य का होता 125 /