________________ आगम निबंधमाला 6. मति सम्पन्न- स्मरण शक्ति सम्पन्न एवं चारों प्रकार की बुद्धि से युक्त बुद्धिमान हो अर्थात् भोला भद्रिक न हो। 7. प्रयोग मति सम्पन्न- वाद-विवाद शास्त्रार्थ में, प्रश्नों-जिज्ञासाओं के समाधान देने में, परिषद् का विचार कर योग्य विषय का विश्लेषण करने में एवं सेवा व्यवस्था में, समय पर उचित बुद्धि की स्फुरणा हो, समय पर सही लाभदायक निर्णय एवं प्रवर्तन कर सके। 8. संग्रह परिज्ञा सम्पन्न- व्यवस्था एवं सेवा के द्वारा साधु-साध्वी की और विचरण तथा धर्म प्रभावना के द्वारा श्रावक-श्राविकाओं की भक्ति, निष्ठा, ज्ञान, विवेक की वृद्धि करने वाला। जिससे संयम के आवश्यक विचरण क्षेत्र, उपधि आहार की प्रचुर उपलब्धि होती रहे एवं सभी श्रमण-श्रमणी निराबाध संयम आराधना करते रहें। निबंध- 23 8 संपदाओं की उपयोगिता एवं विवेक (1) सर्वप्रथम आचार्य का 'आचार-सम्पन्न' होना आवश्यक है क्यों कि आचार की शुद्धि से ही व्यवहार शुद्ध होता है। (2) अनेक साधकों का मार्गदर्शक होने से 'श्रुतज्ञान से सम्पन्न' होना भी आवश्यक है। बहुश्रुत ही सर्वत्र निर्भय विचरण कर सकता है। (3) ज्ञान और क्रिया भी 'शारीरिक सौष्ठव' होने पर ही प्रभावक हो सकते हैं, रुग्ण या अशोभनीय शरीर धर्म-प्रभावना में सहायक नहीं होता है। . (4) धर्म के प्रचार प्रसार में प्रमुख साधन वाणी भी है। अत: तीन सम्पदाओं के साथ-साथ 'वचन संपदा' भी आचार्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है। (5) बाह्य प्रभाव के साथ-साथ योग्य शिष्यों की संपदा भी आवश्यक है। क्यों कि सर्वगुणसम्पन्न अकेला व्यक्ति भी विशाल कार्य में अधिक सफल नहीं हो सकता। अतः वाचनाओं के द्वारा अनेक बहुश्रुत-गीतार्थ प्रतिभासम्पन्न शिष्यों को तैयार करना होता है अतः 'वाचना देने में कुशल' होना आवश्यक है। |115