________________ आगम निबंधमाला .. . इत्यादि संकल्पों से गाँव या घरों को मेरे क्षेत्र, मेरे श्रावक, ऐसी चित्त वत्ति रखता हआ ममत्व करता है, घमण्ड करता है, कलह फैलाता है, वह मामक कहलाता है / क्यो कि ममत्व करना साधु के लिए निषिद्ध है। ममत्व नहीं करने के आगम वाक्य :1. अवि अप्प्णो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं / -दश अ. 60 गा. 22 2. समणं संजय दत हणिज्जो कोई कत्थइ / ___णत्थि जीवस्स णासुत्ति, एवं पेहेज्ज संजए ॥-उत्त.अ.२.गा.२७ 3. जे ममाइयमई जहाइ, से चयई ममाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं॥-आचा.श्रु १.अ.२.उ.६। किसी भी पदार्थ- गाँव, घर, शरीर, उपधि आदि में जिसका ममत्व अर्थात् मेरा-मेरा रूप आसक्तिभाव नहीं है, वास्तव में वही वीतरागमार्ग को जानने समझने वाला मुनि है / 4. असमाणो चरे भिक्खू, णेव कुज्जा परिग्गह, . असंसत्तो गिहत्थेहिं, अणिएओ परिव्वए ॥-उत्तरा. अ. 2. गा. 17 भावार्थ- मुनि ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए कहीं भी अपना घर न बनावे, अड्डा न जमावे, गहस्थों में ममत्व, बुद्धि करके आसक्त न बने, किसी को भी अपना मेरा ऐसा मान कर परिग्रह वत्ति न करें। अपने शरीर में भी मेरा पन न बढ़ावें / इन अनेक आगमोक्त विधानों की उपेक्षा करके तथा संयम या वैराग्य भाव को कम करके ऐहिक लोकिक भावनाओं से जो मुनि उपर्युक्त पदार्थों में ममत्व-आसक्ति करता है, मेरा मेरा करते हुए, सोचते हुए उनके निमित्त से कलह करता है, घमण्ड करता है या अशान्त हो जाता है, वह मामक कहा जाता है / 9. संप्रसारिक : असंजयाण भिक्खु, कज्जे असंजमप्पवत्तेसु। . जो देति सामत्थं, संपसारओ उ नायव्वो // - भाष्य गा. 4361 भावार्थ- गहस्थ के कार्यों में अल्प या अधिक भाग लेने वाला या 80